अस्वस्थ को स्वस्थ और स्वस्थ्य को रोगमुक्त रखने के लिए दिनचर्या आदि के साथ भोजन को उगाना, सुरक्षित रखना, पकाना और खाना सीखे। कभी नहीं से पहले वो भी एक अविश्वसनीय और न्यूनतम मूल्य पर। जिसके लिए लोग उत्साहित है।
आज के परिवेश में स्वस्थ व्यक्ति का मिलता अत्यंत दुर्लभ है।
ऐसा क्यों ?
तो आयुर्वेदानुसार इसका मुख्य हेतु प्रकृतिजन्य विकार को माना जाता है।
अब प्रश्न उपस्थापित होता है कि इन विकारो का जनक कौन हो सकता है ?
प्रकृति का पोषण ( निर्माता ) करने वाला या शोषण ( उपयोगकर्ता ) करने वाला।
इसका उत्तर वैदिक वांग्मय के मनुस्मृति के ग्यारहवे अध्याय के तिरसठवें श्लोक में स्पष्टता पूर्वक दिया गया है।
जिसका निराकरण मनु जी ने महायंत्र प्रवर्तनम कहकर किया है। अर्थात महायंत्रों का प्रचुर आविष्कार और प्रयोग।
बुद्धि पूर्वक विचार करे कि महायंत्रों का प्रवर्तन करने वाला कौन है ?
ईश्वर, मनुष्य या कोई और
दृढ़तापूर्वक विचार करने पर महायंत्रों का निग्मनकर्ता मनुष्यातिरिक्त कोई अन्य सिद्ध नहीं होता।
जिसके प्रमाद का दुःख मानवो सहित अन्य जीवो को भी अनायास भोजना पड़ता है।
अंहकार के वसीभूत होकर हम नियमो को समझने में अपनी बुद्धि का उपयोग न कर। नवीन और विस्फोटक वैकल्पिक प्रज्ञा और प्राण शक्ति से समन्वित महायंत्रों का निर्माण स्वार्थ को साधने के लिए करते है।
जिससे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश विकृत, दूषित, क्षुब्ध और कुपित होते है।
जिनमे पृथ्वी, पानी , प्रकाश और पवन को ऊर्जा के वैदिक अवैदिक उभयसंमत स्रोत है।
जिस पर अन्य जीवो के सहित हम मानवो का जीवन भी निर्भर है।
जिसके दूषित होते ही असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। जो रोगानुगति में हेतु है।
रोग ( असंतुलन ) के मुख्य हेतु
ऋतुचर्या के कारण ( मौसम बदलने पर ) : भारत षड ऋतुओ से समन्वित देश है। जिसमे शिशिर, हेमंत, वसंत, वर्षा, ग्रीष्म और शरद है। जिनके कारण वात, पित्त और कफ दोषो में विकृति व्याप्त हो जाती है। जिसके परिणाम के रूप में रोगो की प्राप्ति होती है।
दिनचर्या के कारण : दिन और रात्रि के प्रथम पहर में वातादि दोषो में असंतुलन होता है। जैसे – रात एवं दिन के प्रथम पहर में कफ दोष। इनके अनुसार चर्या न करने पर रोग प्राप्त होता है। जिसको विशेषज्ञों से सलाह लेकर आसानी से दूर किया जा सकता है।
देह प्रकृति का ज्ञान न होना : प्रत्येक जीव माता – पिता से प्राप्त दोष के वसीभूत होकर जी जन्म लेता है। जिसको स्वभावगत होने के कारण हटाया या मिटाया नहीं जा सकता। बल्कि स्वभाव को समझकर तदनुकूल व्यवहार ही इससे बचने का एकमात्र उपाय है।
आहार विसंगति : परस्पर विरोधी, विरुद्ध और देहप्रकृति के विपरीत भोज्य पदार्थो को खाने से रोगो की प्राप्ति होती है।
अपौष्टिक खाद्य सेवन : आजकल ज्यादातर खाद्य पदार्थ पौष्टिकता से रहित है। जिसका कारण उनको प्राप्त करने, रखने और उपयोग करने की विधि अनुपयुक्त है। जिससे अपौष्टिकता जन्म लेती है। उदहारण के लिए तेल इत्यादि।
अंधाधुंध दवाइयों, मल्टीविटामिन्स और सप्लीमेंट का सेवन : विटामिन्स, एंटीऑक्सीडेंट्स आदि की प्रतिपूर्ति फलों, सब्जियों आदि न कर कृत्रिम विधा से करना। जो एक न एक दिन रोग का प्रबल हेतु बनता है।
ऋतु के विपरीत अन्नो का सेवन : आजकल स्वाद को सर्वोपरि स्थान दिया जाता है। जिसके लिए बिना ऋतु का विचार किये, हम भोजन करते है। जिससे रोगो के होने की पूर्ण संभावना होती है।
भोजन पकाने के लिए शास्त्रोक्त विधा का पालन न करना : आजकल भोजन उत्पादन से लेकर सेवन तक तकनीकी विधा का उपयोग होने लगा है। जिससे रोग को पनपने का स्थान प्राप्त होता है।
व्युत्पन्न विधि के अनुरूप भोजन ग्रहण करना : शास्त्रों में मीठा, खट्टा, नमकीन आदि के खाने का क्रम निर्धारित है। जिसका पालन न करने पर एसिडिटी आदि होने की पूर्ण संभावना होती है।
हम मानवों को स्वस्थ रहने के लिए इन सभी समस्याओं से बचना आवश्यक है। जिसका भोजन विज्ञान प्रशिक्षण भी देता है। जिसके लिए आप अभी संपर्क करें।