भोजन विज्ञान पूर्णतः आयुर्वेदादी शास्त्रों की मान्यताओं के अनुरूप भोजन का उत्पादन, संरक्षण, रंधन और परिरम्भण ( सेवन या उपभोग ) की बात करता है। जिसका निर्माता कोई सामान्य व्यक्ति नहीं, अपितु तत्वज्ञ महापुरुषों ने सृष्टि ( प्रकृति ) में अनादिकाल से सन्निहित अनुगत सिद्धांतो का अनुशीलन कर उद्भाषित किया है। लोकहित में जिसका क्रियान्वयन कर उन्होंने विश्व को आश्चर्यचकित किया।
गुरु, ग्रन्थ और गोविन्द की करुणा के अमोघ प्रभाव से, वेदो का परम्परा से अध्ययन कर सिद्धस्त आचार्यो ने अद्भुत मेधा शक्ति के बल पर आयुर्वेदादी शास्त्रों का प्रणयन किया। जिसको लौकिक, पारलौकिक उत्कर्ष के साथ – साथ परमात्मा की प्राप्ति में हेतु बनाया। जिनको कालक्रम से संजोने और प्रसारित करने का पारम्परिक दायित्व भी इन्होने ही निभाया।
जिनको आयुर्वेद के सिद्धस्त आचार्यो ने अपनी मेधा शक्ति के बल पर दार्शनिक ही नहीं अपितु वैज्ञानिक और व्यवहारिक धरातल पर ख्यापित किया। जिसको चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, अष्टांग हृदयम, अष्टांग सग्रहम, भाव प्रकाश, निघण्टु, माधव निदान जैसे अनेको आयुर्वेद के ग्रंथो के सांगोपांग अध्ययन और अनुशीलन से प्राप्त किया जा सकता है।
ऋग्वेद का उपवेद आयुर्वेद को माना गया है। जिसकी रचना वेदोक्त मंत्रो ( सिद्धांतो ) के आधार पर हुई। इस कारण आयुर्वेद की ख्याति भी वेदो की ही प्रशंसा है। जिसको आज पूरा विश्व स्वीकारता है। सैद्धांतिक धरातल ही नहीं वैज्ञानिक और व्यवहारिक धरातल पर भी वेदो का सिद्धांत सर्वोकृष्ट नहीं एकमात्र उत्कृष्ट है। इनके कारण ही आयुर्वेद चिकित्सा ही नहीं अपितु राकेट, कम्यूटर, एटम और मोबाइल भी इनमे सन्निहित सिद्धांतो का अनुगमन करते हुए संचालित होते है।
दर्शन, विज्ञान और व्यवहार में सामजस्य साधने वाली एकमात्र चिकित्सा आयुर्वेद है। जिसका अनुगमन तो हर कोई कर सकता है, पर चुनौती कोई नहीं दे सकता। यदि प्रमादवश चुनौती दे भी दे तो अपनाने के लिए विवश हो उठता है। इन्ही विशेषताओं के कारण आयुर्वेद पूरे विश्व के लिए आस्था का पात्र है। जिसका प्रचार – प्रसार आज भी अपेक्षित है।
आज जहा कही जो भी चिकित्सा दिखाई पड़ती है, उसके मूल में आयुर्वेदोक्त सिद्धांत है। जिसका सर्वोच्च फल स्वास्थ्य है। भेद केवल विधा ( तंत्र ) का है। जिसको लेकर आज अनेको प्रकार के विभेद दिखाई पड़ते है। यहाँ ध्यान रखने वाली बात यह है कि शास्त्र सम्मत फल और सिद्धांत के प्रति कौन आकृष्ट नहीं है ? अर्थात सभी आकर्षित है। परन्तु विधा में प्रमाद ( मनमानी ) करने पर सिद्धांत का परिपालन करने पर भी शास्त्रोक्त फल की प्राप्ति कथमपि संभव नहीं।
इन सार्वभौमिक सूत्रों का प्रतिपादन लोभ, भय, कोरी भावुकता और अविवेक के वसीभूत होकर नहीं किया गया है। जिसके कारण आज भी इनको चुनौती देने वाला कोई नहीं। बल्कि तथ्य ( सत्य ) का ज्ञान होते ही इनको अपनाने के लिए उत्सुक हो जाता है। इन्ही विशेषताओं केकारण पूरा विश्व वेदादि शास्त्रों के प्रति ह्रदय से आस्था रखता है। जिसका विधि – विधान से निष्ठा पूर्वक यजन करने वाला संशय विपर्यय के बिना भोग ( स्वास्थ्य एवं सुख ) और मोक्ष प्राप्त करता है।
सलाह
सम्पूर्ण आयुर्वेद का सांगोपांग अध्ययन और विवेचन करने पर, कायिक और आघातजन्य नामक दो प्रकार के रोगो की प्राप्ति होती है। जिसमे आघात रोग न के बराबर होने के कारण शत प्रतिशत रोग कायिक है। आयुर्वेदानुसार जिनका मूल हेतु आहार – विहार, दिनचर्या – ऋतुचर्या आदि है। जिनमे विसंगति के परिणामस्वरूप व्याधि की प्राप्ति होती है।
जिसके निदान में औषधियों के साथ गुणवत्तायुक्त भोजन का सर्वाधिक महत्व है। जिसका ख्यापन आयुर्वेदादी शास्त्रों में विरुद्ध, विरोधी आदि आहारों के माध्यम से किया गया है। इस कारण आयुर्वेद वर्णित मंत्र, भावना, सामाग्री, विधि और निषेध का पालन भोजन की गुणवत्ता के लिए आपेक्षित है। इनके अभाव में स्वास्थ्य की प्राप्ति सम्भव नहीं।
आज विसंगति यह कि हम भोजन अपनी इच्छा के अनुरूप करते है। जो सर्वथा शास्त्रों के विरुद्ध होती है, और कामना शास्त्र सम्मत पालते है। जिससे हमे शास्त्रों पर अनास्था और रोग नामक विकारो की प्राप्ति होती है। यह अनर्गल प्रलाप हमारी अज्ञानता के कारण है। जिसका निराकरण भगवान् श्री कृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता के छठे अध्याय में स्वस्थः कहकर किया है। जिसमे मोटापा, मधुमेह आदि का कोई प्रश्न ही नहीं।
जिसका प्रकारंतर से विस्तार भगवत गीता के छठवे और तेरहवे अध्याय में युक्ताआहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु एवं विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि इत्यादि वचनो द्वारा किया गया है। वही वेदो के शिरोभाग उपनिषदों में भी इससे सम्बंधित अनेको सिद्धांत प्रतिपादित है। जैसे – छान्दोग्य उपनिषद के आठवे अध्याय में आहार शुद्धी सत्व शुद्धिः आदि।
आयुर्वेदीय सिद्धांतो का मूल वेदादि शास्त्र है। जिसका स्पष्टीकरण वेद शब्द के तारतम्य से स्पष्ट हो जाता है। इन्ही कारणों से आयुर्वेदीय संहिताओं में वैदिक सिद्धांतो का ही अनुगमन है। फिर चाहे महर्षि चरक, सुश्रुत रहे हो या वाग्भट्ट, भावप्रकाश, निघण्टु आदि रहे हो।
यह सिद्धांत श्रीमद्भागवत के चौथे स्कंध के अठारहवे अध्याय के अनुसार अनादि काल से चिर, परीक्षित और प्रयुक्त है। जिसका आलंबन लेने वाला सकल भोगो को भोगता हुआ, ब्रह्मात्म तत्व के एकत्व विज्ञान ( मोक्ष ) को प्राप्त करता है।
ध्यान रहे : स्वास्थ्य के बिना भोग की समुपलब्धि नहीं, और स्वस्थ भोजन के बिना स्वाथ्य सुलभ नहीं। इसलिए आज के समय में भी ये सिद्धांत उतने ही प्रासंगिक है, जितने कि पुरातन काल में थे। सनातन ( पुराण ) थे अर्थात आधुनिक समय में भी स्वस्थ रहने का एकमात्र उपाय आयुर्वेदीय सूत्रों का परिपालन है। आज आवश्यकता है कि अज्ञानता, अहंकार आदि का परित्याग कर पुनः उन्ही उपायों का सहारा ले। जो आदि से अंत तक अजेय ( अविकम्प, अडोल ) है।
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” उदारचरितानाम वसुधैव कुटुंबकम “