हमारा उद्देश्य शास्त्रों में सन्निहित भोजन से सम्बंधित तथ्यों को दर्शन, विज्ञान और व्यवहार में सामजस्य ( तालमेल ) साधकर आपके सम्मुख प्रस्तुत करना। जिससे भोजन की महत्ता का ख्यापन दार्शनिक, वैज्ञानिक और व्यवहारिक धरातल पर विशेष और सामान्य जनमानस में हो सके।
आज का समय अर्थ और काम से सुशोभित है। जिसकी संकीर्णता हमारे पतन में हेतु है। आजकल अर्थ का अभिप्राय प्रायः धन – मान तक सीमित है। वही काम को केवल कामना ( इच्छा ) एवं भोग ( सुख ) किंकर बना दिया गया है। जिससे भावनाओ दूषण होना स्वाभाविक है। परिणामस्वरूप रोगानुगति होना तय है।
इनसे बचने के लिए ऊर्जा के चारो स्रोत पृथ्वी, पानी, प्रकाश और पवन का शुद्ध होना आवश्यक है। इसके साथ ही इनको साधने वाले आकाश आदि का व्यापक और स्थिर होना भी अनिवार्य है। जिस पर पूर्ण नियंत्रण एकमात्र ईश्वर का ही हो सकता है। हम मनुष्य तो केवल उन सिद्धांतो के अनुपालक है।
ज्ञान, कर्म और भोग में परिष्कृतता के कारण इनमे विहित अनुगत सिद्धांतो के अध्ययन का हमारा दायित्व है। जिसका निग्मन गुरु, ग्रन्थ और गोविन्द के अनुग्रह से करने पर ही फलदायक है। जिसमे आहार ( भोजन ) – विहार ( चर्या या कर्म सम्पादन ) आदि का विशेष महत्व आयुर्वेदादी शास्त्रों में ख्यापित किया गया है। जिसके कारण इनको स्वास्थ्य में प्रबल हेतु माना गया है।
भोजन विज्ञान का मूलभूत उद्देश्य
भोजन विज्ञान मनुष्यो के आहार ( विशेषकर भोजन ) को व्यवस्थित कर, रोग से मुक्ति कराने के विविध आयामों का संगम है। जिसमे भोजन की समस्त विधाओं उत्पादन, संरक्षण, रंधन और सेवन की शास्त्रीय विधि को अपनाया गया है। जिससे कृषि विज्ञान, पाक विज्ञान और खाद्य विज्ञान की अनिवार्यता परिलक्षित होती है। जिसमे प्रमाद करने पर विसंगतियों को बल प्राप्त होता है। जिनका परिमार्जन कर आपको स्वस्थ और समृध्द करना हमारा लक्ष्य है।
जिसकी प्राप्ति के लिए आयुर्वेदादी शास्त्रों में, वर्णित अकाट्य अनुगत सिद्धांतो का आश्रय अपेक्षित है। जिसके लिए हमारे जीवन में आमूल चूल परिवर्तन की अपेक्षा है। जिससे रोग के कारण का समूल नाश किया जा सके।
आज के समय में कृषि की विधा दूषित है। जिसके फलस्वरूप मिट्टी में अपौष्टिक्ता व्याप्त है। जिससे उसमे पैदा होने वाले फल – फूल, शाक – पाक आदि में पोषक तत्वों की न्यूनता है। जिसका सेवन करने वाला मनुष्य भी पोषक तत्वों की कमी से ग्रस्त है।
भोजन को पकाने की आधुनिक तकनीक विकृत है। जिसका कारण नवीन वैज्ञानिक विधा है। जिसमे तेल, घी आदि को प्राप्त करने की विधा कुछ अलग ढंग की है। जिनकी प्रसिद्धी आजकल वसा या लिपिड के रूप में है। जिनका सेवन करने पर रोग होना स्वाभाविक है।
आज का खाद्य प्रसंस्करण जितना आधुनिक है, पोषक तत्वों की हीनता के कारण उतना ही घातक है। जिनका आश्रय लेने पर रोग होने का मार्ग प्रशस्त होता है। इस प्रकार विचार करने पर चारो ओर से रोग ही रोग परिलक्षित होता है। जिसमे स्वयं को बचाना अत्यंत कठिन है।
शास्त्रों में विहित भोजन की मर्यादा
श्रीमद्भागवत महापुराण में भोजन को लेकर अनुपम तथ्य ख्यापित है। जीवो जीवस्य जीवनम। जिसके अनुसार समग्र सृष्टि में एक जीव अपनी क्षुधा की निवृत्ति के लिए दुसरे जीव पर निर्भर है। इस प्रकार एक जीव स्वयं को जीवित रखने के लिए, दुसरे जीव को मारने के लिए विवश है।
कौन किसके लिए भोग्य है ? शास्त्रों में इसकी विधि संहिता वर्णित है। जिसका परिज्ञान स्वास्थ्य के सानुकूल है। जबकि इनका अतिरेक ( मनमानी ) रोग में प्रबल हेतु है। जैसे – हम मानवो का भोजन वनस्पतियो, औषधियों आदि तक सीमित है। आजीवन इसका अनुपालन करने वाला, इसका पालन न करने वाले से स्वस्थ होता है।
मर्यादा ( अनुशासन ) का अनुपालन धर्म ( नियम ) है, और इसका उच्छेद अधर्म ( नियम का परित्याग ) है। धर्म से सुख ( फल / स्वास्थ्य ) प्राप्त होता है, जबकि अधर्म से दुःख ( रोग )। इसी कारण शास्त्रोक्त विधि – निषेध का परिपालन स्वस्थ रहने का अचूक उपाय है। जिसमे शिथिलता ( प्रमाद ) होने पर ही व्याधि का मार्ग प्रशस्त होता है।
अनादि काल से यह एहतिय तथ्य है। जिनको कोटि – कोटि आलंबनों के द्वारा झुठलाया नहीं जा सकता। बल्कि इन पर विचार कर व्यथित रुग्णता की निवृत्ति का मार्ग निकाला जा सकता है। इन सिद्धांतो की प्रासंगिकता सनातन है। जिससे यह हर देश, हर काल, हर व्यक्ति और हर परिस्थिति में सबके लिए सामान रूप से उपकारक है।
शास्त्रीय सिद्धांतो की प्रमाणिकता
अनादि काल से चिर परीक्षित और प्रयुक्त सिद्धांतो के लिए शास्त्रों में सनातन शब्द का प्रयोग है। जिससे इनमे स्थायित्व है। जो कभी बदलने वाला नहीं। जबकि आज के नवीन शोध अस्थिर है। कुछ ही वर्षो में एक व्यक्ति दुसरे व्यक्ति के बात का खंडन कर देता है। जबकि शास्त्रीय सिद्धांत दार्शनिक, वैज्ञानिक और व्यवहारिक धरातल पर आज भी अकाट्य है।
इनसे लाभ तो हर कोई ले सकता है, पर अन्यथा नहीं सिद्ध कर सकता। भोजन से ही शरीरांगीय सञ्चालन के लिए शक्ति प्राप्त होती है। इस कारण इसका प्रभाव स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर पर सामान रूप से पड़ता है। जिसको छान्दोग्य उपनिषद ने आहार शुद्धि सत्व शुद्धिः से अभिव्यक्त किया है। जिसका यत्र तत्र वर्णन रामायण महाभारत आदि ग्रंथो में भी है।
चिकित्सा ( विशेषकर काय ) में स्पष्ट रूप से बताया गया कि – निगमागम सिद्धांतो की अज्ञानता आदि के फलस्वरूप अस्वास्थ्यता को प्रश्रय प्राप्त होता है। जिनसे निजात पाने के लिए इन नियमो का परिज्ञान ही नहीं, इनको समझकर तत्परतापूर्वक पालन की भी अपेक्षा है।
ऐसा न होने पर रोगो के मायाजाल से बचना रोगियों ही नहीं, रोग विशेषज्ञों के लिए भी टेढ़ी खीर है। जिसके लिए उपनिषदों में उद्घोष है –
नान्या पंथा विद्यते अनायः
इसलिए भोजन विज्ञान द्वारा इनका प्रशिक्षण भी दिया जाता है। जिससे समग्र विश्व भोग ( स्वास्थ्य ) और मोक्ष ( मुक्ति ) प्राप्त कर सके।