ग्रीष्म ऋतु में तांबे के बर्तन का पानी पीना औषधि है

तांबे के बर्तन का पानी तो आमतौर पर सभी ऋतुओ में पिया जा सकता है। परन्तु ग्रीष्म ऋतु में तांबे के बर्तन में पानी पीने से सर्वाधिक लाभ हमें प्राप्त होता है। तांबे का बर्तन पहले जहा लोटे आदि के रूप में प्राप्त होता था। वही अब पानी की बोतल के आकार में भी अब बाजारों में उपलब्ध होने लगा है।

जिसके कारण इनका उपयोग अब सुगमता पूर्वक किया जाने लगा है। जिसका लाभ अब आसानी से गांव और शहर दोनों प्रकार के व्यक्तियों द्वारा उठाया जा सकता है। उपलब्धता और रखरखाव के सुगम होने पर ही किसी भी वस्तु की उपयोगिता व्यवहारिक धरातल पर चरितार्थ होती है।

तांबे के बर्तन का पानी

तांबे के बर्तन का पानी का जितना अधिक उपयोग किया जायेगा। हम मनुष्यो का शरीर इससे उतना ही अधिक गुणों को धारण करेगा। अनुपलब्धता के अभाव में गुणों की प्राप्ति होना सम्भव नहीं। परन्तु ध्यान रखने वाली बात यह है कि उसको प्राप्त करने की उपयुक्त विधि क्या हो सकती है।

तांबे के बर्तन का पानी से हमारे शरीर को पर्याप्त पोषण प्राप्त होता है। यह विधि सनातन काल से चिर, परीक्षित और प्रयुक्त होने के कारण आज भी उतनी ही उपयोगी है। जितनी पहले थी। जिस पर आस्था और निष्ठा का बने रहना स्वाभाविक है। जो आयुर्वेद से परिचित महानुभावो के ह्रदय में आज भी है। गिलोय का काढ़ा कैसे बनाये में भी इसी जल का प्रयोग होता है।

जिसके फलस्वरूप आज भी इसका प्रयोग प्रायः हो रहा है। चिकित्सा आदि में जहा गुनगुने पानी / गर्म पानी की महिमा का बखान किया गया है। वही ग्रीष्म ऋतु में ठंडा पानी की उपयोगिता पर भी प्रकाश डाला गया है। इस प्रकार दोनों ही जल अपने अपने ऋतुकाल में अपना प्रभाव प्रकट करते है।

तांबे के बर्तन का पानी क्या है?

आज के समय में तांबे के बर्तन का पानी से अभिप्राय तांबे के बर्तन में रखे पानी से है। जो सत्य के निकट है परन्तु पूर्ण सत्य नहीं। इस प्रकार की अनेको बाते आज हमें सुनने और पढ़ने में प्राप्त होती है। जिसका लोग सेवन कर अपने जीवन में उसका अनुशरण करने लगते है। जिससे अनेको प्रकार की विसंगतियों की प्राप्ति होती है।

विसंगतियों का उचित समय पर निवारण न होने पर विसंगतियों का बदलाव हमें व्याधि की रूप में प्राप्त होता है। जिसका निदान करने की लिए हम अनेको प्रकार की पद्धतियों का आलंबन लेते है। फिर भी समस्या ज्यो की त्यों बनी रहती है। जिसका मूल कारण समस्या की जड़ तक उपचारक या चिकित्सक का न पहुंच पाना है।

जिसके कारण हम अनायास ही देह, धन और मानसिक विसाद के शिकार हो जाते है। इन विसंगतियों से बचने का एकमात्र उपाय सिद्धस्त या जानकार व्यक्ति से उचित परामर्श के बाद ही इनका उपयोग करना। जो आजकल भौतिक रूप से कम ही देखने को प्राप्त होता है।

धो –  माँजकर तांबे के बर्तन में आठ दस घंटे रखे पानी को ही उपयुक्त माना जाता है। जो आयुर्वेदादी शास्त्रों को भी मान्य है। यह सामान्य जल को विशेष पेय जल की श्रेणी में पंहुचा देता है। यह पानी ही सभी दृष्टियों से सेवन योग्य है। पानी से प्राप्त होने सभी पोषक तत्वों को पर्याप्त मात्रा में सुलभ करने की क्षमता भी इसी जल में है।

उपर्युक्त उपाय के अतिरिक्त आज जितने भी उपाय प्रचलित है। वह सभी आयुर्वेद को मान्य नहीं है। जल पात्रों की बात की जाय तो तांबे, स्फटिक, कांच, मिट्टी आदि के बर्तनो का उल्लेख किया गया है। जबकि प्लास्टिक आदि का कही कोई वर्णन नहीं प्राप्त होता। इनमे भी तांबे को सर्वोकृष्ट जलपात्र बताया गया है। आधुनिक जीवन की स्वस्थ दिनचर्या में इनका अद्भुत महत्व ख्यापित है।

तांबे के बर्तन का पानी कैसे बनाया जाता है?

तांबे के बर्तन का पानी बनाने के लिए, शुद्ध तांबे के धातु से विनिर्मित पात्र की आवश्यकता होती है। तांबे की शुद्धता के ऊपर ही पानी की गुणवत्ता निर्भर है। मिलावटी धातु से निर्मित पात्र में उतने गुणों का आधान नहीं होगा। जितना शुद्ध धातु में होना चाहिए।

आजकल विज्ञान के आलम्बित ज्ञान के आधार पर आधुनिक लोग एक नई विधा को प्रश्रय देते है। मिटटी, कांच इत्यादि से विनिर्मित पात्र में जल को भरकर ऊपर तांबे का टुकड़ा डालते है। जिसकी समय सीमा को 15 से 30 मिनट मानते है। जो पानी को शुद्ध करने का कार्य करता है। जिससे हमारी पाचन क्रिया मजबूत होती है। जो पाचन क्रिया कैसे सुधारे में सहायक है।

जबकि आयुर्वेद में तांबे के बर्तन में ही पानी को भरकर रखने का विधान किया गया है। जो भौतिक विज्ञान और गणित के आधार पर विचार करने पर भी उचित है। जिसको हम आयतन या क्षेत्रफल के आधार पर भी समझ सकते है। जितना अधिक आयतन होगा उतना अधिक जल तांबे के संपर्क में आएगा।

जिससे अशुद्धियों के वारण के लिए उतने ही कम समय की आवश्यता होगी। फिर भी आयुर्वेद के अनुसार 8 से 10 घंटे का समय निर्धारित किया गया है। अब आप ही विचार करे कि आधुनिक विधि कैसे आयुर्वेदोक्त विधि से प्रभावी हो सकती है। आधुनिक विधि से कुछ गुणों की प्राप्ति हो सकती है।

लेकिन उतने गुणों की नहीं जितनी की आयुर्वेद में वर्णित विधा का विधान है। व्यापकता का जितना अधिक प्रसार सनातन ग्रंथो में है। उतना आधुनिक ग्रंथो में होना तो दूर कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इस कारण ही तांबे के बर्तन में पानी को भरकर ही उपयोग करना लाभकारी है।

तांबे के बर्तन का पानी कब पीना चाहिए?

इस पानी को पीने के दो उपाय आयुर्वेद में सुझाये गए है। एक उपाय ब्रह्ममुहूर्त में। जिसे आयुर्वेद में दिनचर्या के अंतर्गत उषापान के रूप में जाना जाता है। जिसे सूर्योदय के पूर्व और मलत्याग के पूर्व सम्पादित करना बताया गया है। यह विधि सामान्य जनमानस में प्रचलित भी है।

जबकि दूसरा उपाय पूरे दिन जब भी प्यास लगे ताम्बे के बर्तन का पानी पीना। यह आमतौर पर कम प्रचलित विधि है। जिसका मूल कारण प्रबल निषेधाज्ञा का पाया जाना है। विधि का पालन करे या न करे। निषेध का पालन न करने पर दुष्परिणाम की प्राप्ति होना सुनिश्चित है।

उपरोक्त दोनों ही विधिया आयुर्वेद को मान्य है। आयुर्वेद की विशेषता और उपयोगिता का मूल विधि – निषेध है। दोनों ही विधियों की अपनी अपनी निषेधाज्ञाए है। जिसके कारण ही इनके उपयोग की व्यवहारिक धरातल पर पृथक उपयोगिता परिलक्षित है। जबकि गुणों की बात की जाय तो दोनों के गुण सामान है।

दोनों विधियों में पहली विधि पूरे वर्ष बिना किसी रोक टोक के उपयोग की जा सकती है। यहाँ ध्यान रखने वाली केवल एक बात है की इसका उपयोग खाली पेट करना करना है। जिसे कही कही पर बासी मुँह उपयोग करना भी कहा जाता है। दोनों एक ही बात है। केवल कहने के तरीके में अंतर है और कुछ नहीं।

जबकि दूसरी विधि में प्रत्येक तीनमाह के अंतराल पर एक पक्ष का अंतर कर पुनः उपयोग करने का विधान है। इसका पालन न करने पर शरीर में अधिक तांबे के जमने के कारण अनेको प्रकारकी समस्याए उत्पन्न हो जाती है। जो हमारे लिए अनुपयोगी सिद्ध है। आयुर्वेद में गिलोय सेवन विधि में जहा भी जल का प्रयोग है। वह ताम्र जल ही है।

तांबे के बर्तन का पानी के गुण

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ग्रीष्म ऋतु का आगमन बसंत के ठीक बाद माना गया है। ग्रीष्म ऋतु को ही आमतौर से गर्मी के नाम से जाना जाता है। इस ऋतु में सूर्य के तपने से तापमान में वृद्धि देखी जाती है। जिससे निजात पाने के लिए मानव ही पशु, पक्षी भी ईश्वर प्रदत्त जल का उपयोग करते है। जो पीने योग्य पानी होता है।

शीतलता और तरलता पानी का स्वाभाविक गुण है। जिसकी प्रधनता के कारण ही जीवो के द्वारा इसका सेवन किया जाता है। मानव शरीर के ताप को नियंत्रित करने की क्षमता भी इसके इसी गुण के कारण पायी जाती है। जो ग्रीष्म काल में औषधी के समान है। पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीवो के द्वारा पानी का उपयोग होता है।

परन्तु इस काल में पानी का सर्वाधिक उपयोग विभिन्न प्रकार के पेयों के माध्यम से किया जाता है। जैसे निम्बू पानी, शरबत आदि। इस समय में पाए जाने वाले फलो में भी जल की प्रधनता होती है। जैसे तरबूज और खरबूज। दूध के माध्यम से बनने वाली छाछ में जल की ही प्रधनता होती है।

बिना पानी के इन पेयों की कल्पना भी नही की जा सकती। आजकल तो पानी की बोतल में भी पानी यांत्रिकी के विकास के कारण उपलब्ध है। फिर भी पानी की अशुद्धि आज के समय में भी एक भीषण समस्या है। जिसके निवारण के लिए अनेको आधुनिक उपायों का आलंबन लिया जाता है।

जबकि सर्वमान्य चिकित्सा आयुर्वेद में पानी को शुद्ध करने के लिए तांबे के बर्तन का प्रयोग प्राप्त होता है। तांबे का बर्तन जहा कम लागत में आसानी से उपलब्ध होता है। वही दूसरी ओर उचित गुणवत्ता का पानी भी उपलब्ध कराता है। इस कारण ही तांबे के बर्तन का पानी के गुणों को जानने में ही हमारी भलाई है।

जल का जीवाणु रहित होना

तांबे के बर्तन में रखे पानी की बात की जाय तो यह पानी जीवाणु रहित होता है। जो तांबे की संरचना के आधार पर घटित होता है। जिसका अध्ययन आधुनिक विज्ञान की रासायन विज्ञान के अंतर्गत किया जाता है। जो इलेक्ट्रॉनिक विन्यास के आधार पर समझा जा सकता है।

रसायन शास्त्र के आधार पर चांदी में ताम्बे से भी अधिक सक्रियता जीवाणुओ को मारने पायी जाती है। जो इसके अंतिम कक्षा में पाए जाने वाले इलेक्ट्रानो के आधार पर विघटित होता है। जिसको समझने के लिए इनके विन्यास को समझने की आवश्यकता है।

तांबे का विन्यास करने पर 1s22s22p63s23p64s23d प्राप्त होता है। इस आधार पर इसके पास कुल 29 इलेक्ट्रान है। अंतिम कक्षा पर ध्यान दे तो डी कोष में 10 इलेक्ट्रानो के स्थान पर 9 इलेक्ट्रान है। जिसकी पूर्ति के लिए एस कोष से एक इलेक्ट्रान के पूर्ति की अपेक्षा है। जो विपरीत क्रम से एस और डी को प्राप्त है।

वही चांदी के विन्यास की बात की जय तो 1s2s2p3s3p4s3d10 4p5s4d9 प्राप्त होती है। जो ठीक वही स्थिति उत्पन्न करती है। जो तांबे में है। इनके आदान प्रदान के कारण ही दोनों कोशो में संघट्ट पाया जाता है। जिससे कम्पन्न उत्पन्न होता है।

तांबे के बर्तन में आयतन अधिक होने के कारण इसकी दीवारों पर यह घटना घटित होती है। इन क्रियाओ के फलस्वरूप ही जीवाणुओ को अपने अपने जान से हाथ धोना पड़ता है। और पानी अपने गुणों को धारित करता है। इनको ही पीने योग्य पानी के गुण धर्म कहते है। जबकि जीवाणुओ का नाश करने के लिए अन्य आधुनिक विधाए भी है।

पानी का विषाणु रहित होना

पानी को जीवाणु रहित बनाने के लिए पानी को गर्म पानी, गुनगुना पानी आदि का रूप देना है। अत्याधुनिक तकनीकी की बात करे तो अल्ट्रा वॉइलेट के द्वारा भी जीवाणुओ का नाश किया जाता है। जिसे हम युo वीo रेज के नाम से भी जानते है। यह सभी उपाय केवल जीवाणुओ का ही नाश कर पाते है।

जबकि विषाणुओ का नाश करने में यह अक्षम है। जबकि तांबे के बर्तन में रखा पानी विषाणुओ का नाश करने की क्षमता रखता है। जो उसे इस आधुनिक विधा से अधिक उपयोगी बनाता है। यह गुण भी चांदी और तांबे में समान रूप से पायी जाती है। जिसके कारण आयुर्वेद में इसको उपयोग करने पर बल दिया गया है।

गरम पानी और गुनगुने पानी में भी विषाणुओ के पाए जाने की सम्भवना काम होती है। परन्तु हर बार गर्म करने पर गैस चूल्हे आदि की आवश्यता है। जिसको हर जगह ले जा पाना भी एक बड़ी समस्या है। जिसके वारण के लिए लोगो के द्वारा विशेष रूप से बनी बोतल का उपयोग किया जाता है।

जिसके निर्माण में प्लास्टिक आदि का उपयोग किया जाता है। जो हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध है। इस कारण इसका उपयोग पानी से सम्बंधित समस्याओ के वारण के लिए आसानी से किया जाता है। जो सभी के लिए हर दृष्टि से उपकारक ही सिद्ध है। जो पेट दर्द के शमन का भी कार्य करता है।

पानी का संरचनात्मक होना

पानी को संरचनात्मक बनाने की क्षमता केवल तांबे में ही पायी जाती है। जो जल में विमिश्रित अनेको प्रकार की अशुद्धियों का कर्षण कर शुद्ध करता है। जल में अनेको अशुद्धियों का अस्वाभाविक रूप से मिश्रण होने के कारण ही जल में दूषण की प्राप्ति होती है। जिसे हम असंरचनात्मक जल के रूप में जानते है।

पानी स्वाभाविक रूप से उदासीन अवस्था आदर्श मना जाता है। जबकि प्रायोगिक धरातल पर शुद्ध पानी क्षारीय अवस्था में पाया जाता है। जिसकी आवश्यकता हम जीवो को स्वाभाविक रूप से होती है। जब बात ग्रीष्म ऋतु की हो इसकी उपयोगिता और भी अधिक बढ़ जाती है।

जब इसमें किसी अम्लीय पदार्थ को मिलाया जाता है। जैसे औद्योगिक कचरो के रूप में कल कारखानों से अनुपयोगी द्रव्य को नदियों में छोड़ा जाता है। जिससे नदी का पानी या सरोवर आदि का जल अम्लता को धारण करने के कारण अशुद्ध हो जाता है। जिसे अपेय जल की संज्ञा डी जाती है।

जबकि तांबे का बर्तन इस अशुद्धि को दूर करने में सक्षम होता है। एस और डी उपकोषो में उपस्थित इलेक्ट्रानो में ऊर्जा के स्थानांतरण के कारण ही सम्भव है। जिसमे स्थितिज ऊर्जा का रूपांतरण गतिज ऊर्जा में होता है। इसके ठीक विपरीत गतिज ऊर्जा का रूपांतरण स्थिज ऊर्जा में होता है।

जिसके कारण ही पानी की संरचनात्मकता संरक्षित रहती है। जो गर्म पानी, गुनगुने पानी में नहीं बल्कि तांबे के बर्तन के पानी में पायी जाती है। ग्रीष्म ऋतु में इसका उपयोग अधिक होने से अधिक गुणों की प्राप्ति होने का सुगम सुअवसर हमको प्राप्त होता है।

जल का क्षारीय होना

मानव शरीर रचना के आधार पर विचार करे तो मानवो को क्षारीय जल की आवश्यकता होती है। जबकि अम्लों का निर्माण तो शरीर में स्वाभाविक रूप से होता ही है। जिसको उदासीन करने के लिए क्षार की आवश्यकता है। जो जल या किसी अन्य माध्यम से पूरी होने पर हमारे स्वास्थ्य का रक्षक है।

जबकि मानव शरीर में उदासीन पानी को धारण करने की सलाह दी गई है। जिससे शरीर के अंगो और उपांगो में उपस्थित मल पानी में मिलकर मल मूत्र के द्वार से बाहर जा सके। जो चिकित्सा का एक अंग या उपाय आयुर्वेदादी शास्त्रों को मान्य है।

अम्लता रोग को पोषित करता है। जिसके कारण इसके समूल नाश की अनेको विधाओं की चर्चा काय प्रधान ग्रंथो में की गयी है। कायिक रोगो के जन्म देने वाला अम्ल है। जो ऋतु काल आदि के योग से हम जीवो के जीवन में प्रकट होता है। जैसे पित्तज ज्वर आदि।

जिसके निदान के लिए के चिकित्सा ग्रंथो में आहार विहार को सुव्यवस्थित रखने की बात कही गई है। जिसकी देह प्रकृति और काल के अनुरूप वृहद विवेचना की गई है।  इस कारण ग्रीष्म ऋतु में तांबे के बर्तन का पानी पीना औषधी के समान बताया गया है।

क्षारीय पानी को पीने से जहा स्वाभाविक स्वास्थ्य की उपलब्धि होती है। वही रोगो से प्राप्त दुःख आदि की प्राप्ति हमें नहीं होती। इस आधार पर क्षारीय जल का पाने का उपाय तांबे के बर्तन के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता।

आनुपातिक टी डी एस को धारित करना

पानी में पाया जाने वाला टी डी एस जल का विशेष गुण है। जिसमे कैल्शियम, मैग्नीशियम, निकिल, कोबाल्ट आदि सूक्ष्म पोषक तत्वों की प्रचरता होती है। जो हमारे शरीर को स्वस्थ्य रखने में हेतु है। अब प्रश्न यह उठता है कि मानवो के लिए कितने टी डी एस का पानी ग्राह्य है?

अलग अलग देशो में वहाँ पर पायी जाने वाली जैव विविधता के आधार पर इसका निर्धारण होता है। फिर भी सामान्य रूप से मनुष्यो की बात करे तो 100 से 300 के बीच निर्धारित है। यह ऐसी सीमा है जो मानवो को अनुकूल जल की आवश्यकता को पूर्ण करती है। जिसे शरीर इनमे उपस्थित उपयुक्त पदार्थो का कर्षण कर स्वास्थ्य प्रदान करता है।

तांबे की बात करे तो यह 500 तक के टी डी एस के जल का शोधन करने में समर्थ है। यह क्रिया भी इलेक्ट्रानिक विन्यास के कारण सम्पन्न होती है। दोनों अणुओ में इलेक्ट्रानो के साझाकरण के परिणामस्वरूप दोनों कोषों में स्थित इलेक्ट्रानो के टकराने की क्रिया होती है। जिसके कारण अतिरक्त पोषक तत्वों का कर्षण हो जाता है।

जो धीरे धीरे ताम्बे के बर्तन की तली में आकर बैठ जाते है। और कुछ बर्तन की दीवारों में भी चिपक जाता है। जो हरे रंग या गाढ़े हरे रंग की पपड़ी के रूप में दिखाई पड़ता है। जिसको माजने की आवश्यकता होती है। ऐसा नहीं होने पर इस क्रिया मी न्यूनता होने लगती है। जो आगे चलकर पानी का शोधन नहीं करता।

सामान्यतः 500 से अधिक के टी डी एस के जल को शुद्ध करने की क्षमता तांबे में नहीं पायी जाती। इसकारण अधिक टी डी एस होनेपर अन्य प्रणाली का आलंबन लेकर अपेक्षित टी डी एस पर लानेकी आवश्यकता होती है। तदुपरांत तांबे का आलंबन लेकर आनुपातिक टी डी एस को प्राप्त किया जा सकता है।

मल शोधक

मल शोधक के रूप में जल का सर्वाधिक उपयोग हम मनुष्यो के जीवन में किया जाता है। जो आयुर्वेद सहित अन्य चिकित्सा पद्धतियों को भी मान्य है। जिसका ठीक ठीक समुचित उपयोग करने पर हमारे स्वास्थ्य का रक्षण होता है। हम जीवो के शरीर की सफाई करने वाला पानी है।

आयुर्वेद के अनुसार ठंडा पानी शरीर की कम सफाई करता है। जबकि गरम पानी पीना रोग विशेष की अवस्था में पेय है। वही गुनगुना पानी  सबसे अच्छा मॉल शोधक माना गया है। पानी से जहा आवश्यक पोषक तत्वों की पूर्ती होती है। वही मल निक्षेपण की क्रिया भी जल के द्वारा सम्पादित होती है।

पानी और पानी में भी गुण आदि के भेद से अंतर परिलक्षित है। गरम पानी, गुनगुना पानी का सेवन सर्दियों में हितकर है।  जबकि ग्रीष्म ऋतु में ठंडा पानी या शीतल जल ही औषधि है। जब पानी में पानी के स्वभावसिद्ध गुण को लेकर प्रसिद्धी हो जाती है। तो इसके व्यावहारिक गुणों में भी उत्कृष्टता प्राप्त हो जाती है।

तांबे का बर्तन अपने स्वभाव के अनुसार अपना प्रभाव दिखाता है। जब तांबे के बर्तन में पानीको रखा जाता है तो रासायनिक क्रियाओ के कारण ही विशेष गुणोंका आधान होता है। यह विशेष गुण तांबे के स्वाभाविक गुण के कारण है। यह जल ही संरचनात्मक होने के कारण मल शोधक जैसा व्यवहार करता है।

ग्रीष्म ऋतु में शरीर के ताप को नियंत्रित करने के लिए अधिक पानी की आवश्यकता होती है। इसकारण इस समय पानी जितना अधिक शुद्ध होगा। उतना अधिक शरीर के आंतरिक भागो में उपस्थित मल का विगलन करेगा। मलिनता का आपनोदन ही चिकित्सा शास्त्रों में स्वस्थ्यता का द्योतक माना गया है। हमारे शरीर में तिल्ली का बढ़ना ( प्लीहा वृद्धि ) भी मलशोधन की विसंगति है।

जल शोधन के लिए तांबा चांदी से अच्छा क्यों है?

तांबे के बर्तन का पानी चांदी के बर्तन के पानी से कुछ अधिक विशेषता रखता है। पानी के स्वाभाविक गुणों की विद्यमानता के कारण ही इसकी सत्ता और उपयोगिता चरितार्थ होती है। पानी के अपने दार्शनिक, वैज्ञानिक और व्यवहारिक गुण है। इन अभी के समुचित योग से पानी का निर्माण होती है।

इन्ही स्वभाव सिद्ध गुणों के कारण ही जल का चिकित्सीय उपयोग है। चिकित्सा की दृष्टि से चांदी के पात्र में रखा पानी सामान्य पानी से अधिक गुण रखता है। परन्तु इतना गुण नहीं रखता जितना तांबे के बर्तन का जल रखता है। तांबे के जल का उपयोग विधि निषेध के अनुसार उपयोग करने पर ही उपयोगी है।

चांदी के बर्तन में रखा जल शीतल प्रकृति का होता है। जो ग्रीष्म ऋतु के लिए उपयोगी है। इसके साथ ही जीवाणु और विषाणु नाशक होता है। यह जल को संरचनात्मक करने में अधिक प्रभावी नहीं है। जो टी डी एस को भी नियंत्रित करने में उतना सक्षम नहीं होता जितना तांबा है।

जबकि तांबे के बर्तन का पानी तीन महत्वपूर्ण गुणों को धारित करता है। पहला जीवाणु और विषाणु नाशक होता है। दूसरा संरचनात्मक होता है। तीसरा इस जल का टी डी एस 100 से 300 या 350 के बीच होता है। यह इन गुणों को धारित करने में अब तक प्राप्त शतुओ में सबसे कम समय लेता है।

आर्थिक दृष्टि से विचार करे तो तांबा चांदी से सस्ता है। जो आसानी से सभी इसका उपयोग कर सकते है। इन अनेको गुणों को धारण करने के कारण ही तांबे के बर्तन का पानी हम सभी के लिए स्वास्थ्यप्रद है। जबकि तांबे का बर्तन को आधुनिक विधा के बल पर पानी की बोतल का रूप भी दिया गया है।

ग्रीष्म ऋतु में तांबे के बर्तन का पानी पीना औषधि होने का कारण

भौगोलिक दृष्टि से भारत को षड ऋतुओ का देश कहा जाता है। जिसमे ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शिशिर और बसंत ऋतुए है। जिनमे प्रत्येक ऋतु का काल दो माह का होता है। उसमे में प्रथम और अंतिम पक्ष संधिकाल का माना गया है। इन सभी ऋतुओ का प्रभाव धरती पर निवास करने वाले प्रत्येक जीव पर होता है। ग्रीष्म ऋतु के आगमन के पूर्व बसंत ऋतु होती है। बसंत के पूर्व शिशिर होती है। ग्रीष्म ऋतु में ही सर्वाधिक सूर्य का ताप पृथ्वी पर अपना पराभव दिखाता है। जिसके कारण ग्रीष्म के अतिरिक्त जितनी ऋतुए है। वह अपेक्षाकृत शीतल है।

जिसके कारण अनेको प्रकार के स्नेहक द्रव्यों का जमाव शरीर के विभिन्न हिस्सों में हो जाता है। जो सूर्य ताप के कारण विगलित होता है। जिसको धोने या अवशोषित करने के लिए शुद्ध जल की आवश्यकता होती है। तांबे के बर्तन का पानी स्वाभाविक रूप से रखता है। जिससे शरीर के विभिन्न अंगो, उपांगो और वाहिनियों में जमे हुए मल का विगलन जल में हो जाता है। जो मल और मूत्र के द्वारा शरीर के बाहर कर दिया जाता है।

दूसरा एक कारण यह है कि हमारे शरीर में 70 से 75 प्रतिशत पानी की विद्यमानता है। जो संरचनात्मक है। यदि हम असंरचनात्मक जल का सेवन करते है तो शरीर में उपस्थित संरचनात्मकता पर विपरीत पराभव पड़ता है। जो स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयुक्त नहीं है। जिसको मानव शरीर पोषण में जल का योगदान कहते है।

यदि अन्य ऋतुओ में दूषित जल का सेवन गलती से हो गया है। या किसी अन्य कारणवश शरीरमें जल की संरचनात्मकता असंतुलित हो गयी है तो उसको सुधरने का यह स्वर्णिम काल है। जिसको तांबे के बर्तन के पानी के द्वारा ही पूर्ण किया जा सकता है। इस कारण ही तांबे के बर्तन का पानी ग्रीष्म ऋतु में औषधि कहा गया है।

ग्रीष्म ऋतु में तांबे के बर्तन का पानी किसे पीना चाहिए?

तांबे के बर्तन का पानी नवजात शिशु से लेकर जीवन के अंतिम काल तक किया जा सकता है। ध्यान रहे आयुर्वेद में विधि निषेध का पालन करने में ही शास्त्र विहित फल की प्राप्ति सुनिश्चित की गयी है। ग्रीष्म ऋतु में तांबे के बर्तन का पानी पीना विशेष लाभदायी बताया गया है। विधि निषेधों की बातकी जाय तो तांबे का बर्तन खट्टी या अम्लीय वस्तुओ को धारित करने का गुण नहीं रखता।  जिसके कारण दही, निम्बू पानी  आदि की साथ इसको उपयोग नहीं करना चाहिए। वही अत्यधिक ठंडा पानी, बर्फ वाला पानी को तांबे की बर्तन में रखने से भी कोई लाभ नहीं मिलता।

तांबे की बर्तन को सीधे आग पर नहीं रखना चाहिए। पानी को गर्म करके भी इस बर्तन में डालकर नहीं रखना चाहिए। जैसे गरम पानी, गर्म पानी,  गुनगुना पानी आदि को इस बर्तन में नहीं रखना चाहिए। आजकल तो पानी की बोतल प्लास्टिक होने से हर कोई असंरचनात्मक पानी ही पी रहा है। यह पानी सामान्य रूप से सामान दाब और ताप पर ही अपमी क्रियाओ को सम्पादित करता है। जिनको ध्यान में रखकर ही इस प्रकार की पानी का उपयोग करना चाहिए। जिससे हम पानी से लाभान्वित हो और दुर्गुणों से बचे रहे। इस बात का ध्यान रखना हम सभी की लिए अनिवार्य है।

तांबे की बर्तन से जल शोधन की शास्त्रोक्त विधा का आलंबन लेकर ही इसका निर्माण होना चाइए। न कि अशास्त्र सम्मत विधा या मनःकल्पित विधा की आवेश में आकर। विधा के उपयोग की विधा भी वास्तु या सामाग्री में जीवत्व का आधान करने में सार्थ है। जिसको सभी विद्वानों के द्वारा एक मत से स्वीकार किया जाता है। ऐसा न करने पर ही लीवर बढ़ने ( यकृत वृद्धि ) की समस्या होती है।

तांबे के बर्तन का पानी पीने से लाभ

तांबे के बर्तन के पानी के लाभों की बात की जाए तो इसके अनेको लाभ है। आयुर्वेद में तो ताम्बे के जल को जीवत्व प्रदान करने वाला जल कहा गया है। जिसका सेवन कर कर रोगी स्वस्थ्यता को प्राप्त होते है। दुर्गुणी गुणों को धारण करते है। यह सभी बाते “आहार शुद्धो सत्व शुद्धी” के बल पर विचारणीय है।

आजकल मधुमेह, कैंसरादि रोगो के बढ़ने का कारण आवश्यक शरीरानुकूल पानी का आभाव है। जो इस प्रकार की विकृतियों का एक प्रमुख कारण है। जिसको समझना और समझकर दूर करना ही हम सभी के इन समस्याओ से बचने का मूल उपाय है। आज कोई व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि मुझे यह रोग नहीं होगा।

स्वास्थ्य अपने आप में अनेको प्रकार की आनुपातिक क्रियाओ का सम्मिलन है। जिनकी उपयक्तता में ही कुशल स्वास्थ्य की प्राप्ति सम्भव है। जिसको आज के समय में समझने की आवश्यकता है। शरीर में एकत्रित मल ही सब प्रकार के रोगो का मूल है। इनकी विद्यमानता के आभाव में रोग की प्राप्ति असम्भव है।

भूख प्यास की निवृत्ति के लिए भोज्य पदार्थो की और पानी की आवश्यकता हम जीवो को होती है। जिसको निर्मूल करना सम्भव नहीं। इस कारण ही इनको चिकित्सा शास्त्रों में स्वाभाविक रोगो की श्रेणी में रखा गया है। इसको कुछ समय या थोड़े समय के लिए ही रोका जा सकता है। इस ऋतु में होने वाला बुखार भी जल विकृति के कारण होता है। जिसके लिए बुखार की सबसे अच्छी दवा का उपयोग किया जाता है।

एक सीमा के बाद इनकी प्राप्ति सुनिश्चित है। जिसको शांत करने के लिए भोजन के रूप में अनेकानेक व्यंजन आदि की अपेक्षा है। जिसके सेवन में प्रमाद या भूल के कारण ही कायिक रोगो की प्राप्ति होती है। इनको भूलो के आपनोदन में तांबे के बर्तन का पानी एक महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करता है।

तांबे के बर्तन के पानी के चिकित्सीय गुण

  • तांबे के बर्तन का पानी त्वचा को मुलायम, तरोताजा और झुर्रियों से बचाने में सहायक सिद्ध है।
  • ग्रीष्म ऋतु में शरीर की अम्लीय का नाश करने में तांबे का पानी सहायक है।
  • तांबे के बर्तन का पानी पाचन तंत्र को मजबूत बनता है।
  • इसके बर्तन का पानी शीतल होने के कारण प्यास का शमन करने में अधिक जल की मांग नहीं करता।
  • यह पानी हड्डियों को मजबूत बनाता है।
  • आँखों की रोशनी को बनाये रखने में सहायक है।
  • हैजा, पेचिस, अतिसार, कालरा आदि रोगो से हमको बचता है।
  • रक्त वाहिनियों को साफकर ह्रदय को मजबूत बनाता है।
  • वृक्क या किडनी की सफाई कर मूत्र विकारो से हमें दूर रखता है।
  • यकृत का शोधन के हमारे रक्त में होने वाली विभिन्न समस्याओ का नाश करता है।
  • रक्त का शोधन कर फोड़े फुंसियों से हमें बचाता है।

FAQ

तांबे के बर्तन में गर्म पानी रखना चाहिए या नहीं 

भूलकर भी नही, क्योकि ताम्र पात्र में रखा उष्ण जल विष युक्त हो जाता है। 

9 thoughts on “ग्रीष्म ऋतु में तांबे के बर्तन का पानी पीना औषधि है”

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