चेहरों के साथ दिलों को रंगने का त्यौहार है होली

बसंत ऋतु का आगमन होते ही प्रकृति में बसन्ती खुमार चढ़ने लगता है। जिसका प्रतिफलन प्रकृति में होने वाले नव परिवर्तनों के रूप में हमें दिखाई पड़ता है। जिसमे सूर्य के आगे ठण्ड घुटने टेक देती है, और मौसम का गुलाबी रंग, हमारी जश्न और जुबान पर चढ़ने लगता है। जिसका शबाब होली के हुड़दंग में दिखाई पड़ता है।  

होली की शुभकामना

हालाकिं बसंत ऋतु का आगाज विद्या की देवी, भगवती सरस्वती के पूजन और अर्चन से आरम्भ होता है। जिसमे सनातनी बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं एक दुसरे को देते है। जो पौष पूर्णिमा से लेकर चैत्र पूर्णिमा को पूर्ण होता है। जिसके बाद गर्मियां अपना कहर ढाने लगती है। इसलिए गर्मियों की बीमारियों से बचने के लिए खान पान का विशेष ध्यान रखना होता है। 

भारतीय रीति रिवाज के अनुसार होली फाल्गुन पूर्णिमा को मनाई जाती है। जो बसंत रितु का चरम समय होता है। जिसमे वात दोष की प्रबलता पाई जाती है। इस कारण बसंत में काम अत्यंत प्रबल होता है। जिसका समर्थन महा कवी कालिदास ने अपने मेघदूत नामक काव्य में किया है।  

ससुराल की होली का अंदाज की कुछ अलग है। जिसके दीवाने हम सभी होते है। जहाँ प्यार – दुलार के साथ – साथ मान – सम्मान भी मिलता है। फिर सरहज और शाली के हाथ के बनी हुई गुझिया की मिठाई मन को भा जाती है। इसके साथ जीजा – शाली के बीच होली खेलने का मजा ही कुछ और है।

लेकिन सबसे अधिक होली देवर – भौजाई के साथ खेली जाती है। इसमें यदि थोड़ी बहुत ऊंच – नीच हो गई तो बुरा न मानो होली है कहने से ही कम चल जाता है। जिससे न केवल हमारा तन बल्कि मन भी होली के रंग से सराबोर हो जाता है। जिसके चलते मन में छिपी बात भी जबान पर आ जाती है। इसलिए चेहरों के साथ दिलों को रंगने का त्यौहार है होली।

सनातन धर्म का अनोखा पर्व क्यों है होली 

सनातन धर्म का अनोखा पर्व क्यों है होली 

ठण्ड की ठिठुरन से ठिठुर कर, पेड़ – पौधों के पत्ते सूख जाते है। जिससे इस समय को पतझड़ कहा जाता है। जिसका असर हम मनुष्यो पर भी देखा जाता है। सर्दियों की ठंडक से अक्सर हमारी त्वचा में रूखापन आदि आ जाता है। 

जो बसंती हवा के आगोश में समा जाता है। वास्तव में बसंत ऋतु प्रकृति के सृजन का समय होता है। जिसकी शुरुआत पेड़ – पौधों पर नई कोपलों के रूप में दिखाई पड़ता है, और हम मनुष्यों पर हास – परिहास की जिंदादिली पर।  

जिसके प्रभाव में आकर हर कोई बसन्ती मौज – मस्ती की हिलोरे लेने से खुद को रोक नहीं पाता। शायद इसलिए होली केवल चेहरे को रंगने का त्यौहार नहीं, बल्कि दिलों को रंगने का भी त्यौहार है। जिसमे रसिक लोग अपनी भावना होली के गीत ( holi ke geet ) से व्यक्त करते है। 

बसंत ऋतू में प्रकृति उत्सव मना रही होती है। जिसमे काम परवान चढ़ा होता है। जिसमे होली आते ही हँसी – ठिठोली का दौर शुरू हो जाता है। जिसे हम अपनी प्रसन्नता रंग – गुलाल से आसमान को रंगकर, बल्कि अपने प्रिय और सम्बन्धी के सांवरे और गोरे गालों को भी रंग कर उत्सव में सरीके होते है। जिससे हमारे और देश वासियो के बीच भाईचारा और सौहार्द्य बना रहता है। जिससे होली बंसतोत्सव ही नहीं, बल्कि रंगोत्सव और कामोत्सव का ही पर्व है।

जिसमे बंसती फुहार के साथ मन के अच्छे विचार, होली के खुमार को उमंग और उल्लास बदल डालते है। जिस पर फागुनी फुहार पड़ते ही, शरीर काम में डूब जाता है। इसलिए बसंत का पूरा समय राग से भरा हुआ होता है। जिसको पुरानी कहावत फगुआ में ससुर देवर लागे से समझा जा सकता है। अक्सर लोग काम के उद्द्वेग को शांत करने के लिए अनायाश ही प्रेम भरे तंज कस देते है। फिर चाहे वह रिश्ता देवर – भौजाई का हो, जीजा – सरहज या भौजी ननद का ही क्यों न हो। 

होली अनोखी होने का कारण 

होली अनोखी होने का कारण 

जिनकी अभी नई – नई शादी हुई है। उनकी होली स्पेशल होती है। लेकिन अक्सर नव विवाहिताएँ पहली होली अपने मायके में ही मनाती है। जिसमे वे अपनी सखी – सहेलियों के मन पर, अपने प्रियतम की काम कुंजलता की मिठास का अंकन करती है। जिससे उनका हृदय भी उस आनंद में विभोर होने को आतुर हो उठता है। 

जिसमे वे अपने मन की बात को रखने के लिए, होली गीत ( holi geet ) को माध्यम बनाती है। जिसको देखकर उनकी सखिया मन ही मन फूली नहीं समाती। कुछ तो इस प्रेम प्रमाद में इतना खो जाती है कि उनके भीतर भी अपने प्रिय की आस जाग उठती है। 

जिस प्रकार विवाह होते ही स्त्री – पुरुष तन और मन से एक दुसरे में समा जाते है। उसी प्रकार होली का रंग भी हमें हमारे तन के साथ, हमारे मन को भी रंग डालता है। जिसकी रति कल्लोलिनी भला किसे नहीं सुहाती। इसलिए होली तन और मन को एक साथ रंगने वाला पर्व माना गया है। 

जिसके आनंद में आकाश से लेकर धरती तक, सब के सब प्रसन्नता के हिलोरों से हिलोर उठते है। फिर क्या ज्येठ – जेठानी और सास – बहू सब मिलकर, होली खेले रघुवीरा अवध में ( holi khele raghuveera ) खो जाते है। क्योकि होली गीत फगुआ का मजा ही कुछ और है।  

हम भारतीय कोई भी करने से पहले अपने इष्ट देव को पूजते है। जिससे भारत में होली ( holi in india ) वैष्णव लोग पहले राधा – कृष्ण को रंग खिलाकर करते है। जिसमे होली गाना आज बिरज में होली रे रसिया बजते ही बरसाने की होली याद आने लगती है। जबकि शिव भक्त होली सॉन्ग ( holi song ) होली खेले मसाने में ( holi khele masane mein ) का लुत्फ़ उठाने लगते है। 

होली क्यों मनाया जाता है ( holi kyu manaya jata hai )

भातीय के इतिहास की गाथा पुराणों में गाई गई है। जिसमे धर्म और ब्रह्म के एकाहार को व्यवहारिक रूप देने की प्रशस्त विधा का अंकन, बहुत की विस्तृत, स्फुट और रहस्यमयी ढंग से किया गया है। जिसका अध्यन करने वाला न केवल भारतीय को जानता है। बल्कि भारत की संस्कृति और सभ्यता को सार्वभौमिक रूप से जान पाता है। जो आज भी अपने अंदर पूरे विश्व को समेटे हुए है। 

श्रीमद भागवत में हिरण्यकश्यपु और प्रह्लाद के शासन की चर्चा है। जिसका ताल्लुक सनातन धर्म के पर्व होली से है। जिसमे महर्षि कश्यप के मना करने पर भी, असुर कन्या दिती ने उनको प्रदोष काल में स्पर्श के लिए बाध्य किया। जिसके फलस्वरूप दिति को हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु नामक दो दैत्य पुत्रो की माता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 

जो दया, सत्य और शौचाचार न रखने से असुर कहलाये। और पूरी पृथ्वी सहित स्वर्गलोक आदि पर भी अपना आधिपत्य जमा लिया। जिससे पूरी सृष्टि में त्राहिमाम – त्राहिमाम होने लगा। एक बार तो दैत्यराज हिरण्याक्ष ने पृत्वी को ही समुद्र में ले जाकर छिपा दिया। जिससे धरती का अस्तित्व पर ही ख़तरा मडराने लगा। जिसकी रक्षा के लिए भगवान ने वाराह अवतार धारण कर, ज्येष्ठ दैत्य पुत्र को मारकर पृथ्वी को जीवनदान दिया। 

जिससे कुछ दिनों तक पृथ्वी पर शांति की स्थापना हुई। लेकिन दिति का छोटा पुत्र जो दैत्य शाशन की सत्ता को सम्हाल रहा था। उसने ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर, अमरता के जैसा वरदान प्राप्त कर लिया। जिसके बाद उसका अहंकार दिन ब दिन बढ़ने लगा। जिससे तीनों लोको में अत्याचार और अनाचार व्याप्त हो चला।

जिसको चुनौती देने का साहस जुटाया, ब्रह्मा जी के पुत्र नारद जी ने। जिन्होंने हिरण्यकश्यपु की पत्नी के गर्भगत शिशु को लक्ष्य बनाकर, धर्म और ब्रह्म का उपदेश दिया। जिसका जन्म होने के बाद नारद जी ने प्रह्लाद नाम रखा। जो भगवान् का सच्चा भक्त था। जिससे दैत्यों के शासन का सूर्य तिरोहित हो चला था।

होली क्यों मनाई जाती है ( holi kyon manae jaati hai )

जिसको मारने के लिए हिरण्यकश्यपु की सेना ने, अनेक तरह के आयाम अपनाए। लेकिन भक्त प्रह्लाद का बाल बांका भी न कर सके। फिर हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका ने कहा की मुझे आग में न जलने का वरदान ब्रह्मा जी ने दिया है। यदि आप आज्ञा दे तो मै प्रहलाह को लेकर आग में बैठ जाउंगी। जिससे प्रह्लाद आग में जलकर मर जाएगा। 

फिर हिरण्यकश्यपु ने होलिका के कथनानुसार, ईंधन काष्ठ को मुखाग्नि देकर होलिका प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठ गई। जिसमे योगी प्रह्लाद में अग्नि की भावना कर ली। जिससे अग्नि प्रह्लाद को दाहकता के स्थान पर शीतलता प्रदान करने लगी, और होलिका के आग में जलने से प्राण पखेरू उठ गए। जिससे आश्चर्य चकित होकर हिरण्यकश्यपु की प्रजा होली की हार्दिक शुभकामनाएं ( holi ki hardik shubhkamnaye ) देने लगी। तभी से होली मनाई जाने लगी। 

जोकि हमें यह सन्देश देता है की हमे अपने ह्रदय में बैर नहीं रखना चाहिए। बल्कि एक दुसरे के हिट का चिंतन करना चाहिए। जिससे हमारा मन सुंदर विचारों वाला बने। लीला पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण का पसंदीदा त्यौहार होली है। जिसके कारण वृन्दावन और बरसाना में होली और भी अधिक धूम धाम से मनाई जाती है। 

होली की शुभकामना से हमारा तन ही नहीं, बल्कि मन भी प्रफुल्लित हो उठता है। होली का गाना ( holi ka gana ), होली के आनंद में चार चाँद लगा देता है। जिसमे रसिया के साथ – साथ बच्चे और बूढ़े भी रंग जाना पसंद करते है। जिसकी मन को मोहने वाली झलक होली पर निबंध आदि से मिलती है। 

चेहरों के साथ दिलों को रंगने का त्यौहार है होली कैसे?

होली की खासियत होली के रंग और होली के लोक गीत में ही नहीं, अपितु होली पर बनने वाले पकवान आदि में देखा जाता है। जिससे होली केवल प्रेम एवं सौहार्द तक ही नहीं, स्वादिष्ट और मन को भाने वाले अनेको व्यंजनों और पानको की मिठास से भी भरा होता है।  

जिसमे गुझिया का नाम लेते ही, मुँह में पानी आने लगता है। जो होली के त्योहारों में सभी के घरों में बड़े जतन से बनाई जाती है। जिसको खाते ही न केवल मन को तृप्ति मिलती है, बल्कि शरीर को पोषण देती हुई भूख को भी मिटाती है।   

इस तरह होली हम देशवासियों के लिए न केवल स्नेह, बल्कि एक दुसरे के सम्मान का भी पर्व है। जिसमे न कोई छोटा है और न कोई बड़ा, हर किसी का अपना सम्मान और स्नेह है। फिर गरीबी और अमीरी की बात केवल सुविधा को लेकर होती है। जो सहयोग के बल पर आसानी से पूरी की जा सकती है। फिर चाहे देश की संस्कृति और सभ्यता में कितना भी अंतर क्यों न हो? 

आखिर हमें एक दुसरे से स्नेह, सुविधा और सम्मान के अतिरिक्त और क्या चाहिए? फिर इसके अतिरिक्त हम एक दुसरे को दे ही क्या सकते या हमारे पास इसको देने के सिवा और है ही क्या? कुछ नहीं फिर हम अक्सर ऐसा क्यों नहीं करते। एक दुसरे से लाग – डाट क्यों रखते है और किसलिए रखते है? हम किससे आगे निकलने की होड़ में लगे है? अपनों से या खुद से।

चेहरों के साथ दिलों को होली में कैसे रंगे?

चेहरों के साथ दिलों को होली में कैसे रंगे

अरे एक बार ठहर कर हमे सोचना चाहिए कि आखिर हम क्या कर रहे है और हमें करना क्या चाहिए? यह सब हर साल सोचने का अवसर देती है होली। लेकिन हम अहंकार के नशे में इतना डूब गए कि हमारी मति ही मर चुकी है। फिर किस उद्देश्य को लेकर जी रहे है हम? केवल पेट और परिवार पाल रहे है या कुछ और। फिर यह तो पशु कर्म है। इस तरह तो हम मानव होते हुए भी पशु है।

ऐसे में जो व्यक्ति खुद अपने माता – पिता की सेवा न कर, अपने बेटे को अपने बुढ़ापे का सहारा समझता है। यह तो स्वयं के द्वारा ही स्वयं को छलना नहीं तो क्या है? क्योकि सनातन शास्त्रों में दान के वास्तविक फल बताया गया है कि आप जो कुछ दान करते है। वही चक्र वृद्धि व्याज के रूप में आपको वापस मिलता है। 

माना कि हम मनुष्य अज्ञानता और वासना के वसीभूत है, इस कारण भूल होना स्वाभाविक है। लेकिन भूल को स्वीकारने के बजाय, भूल पर भूल करके मन में गाँठ पर गाँठ मारते रहना बुद्धिमानी है।

नहीं, यह मूर्खता का लक्षण है। सच्चा मनुष्य वही है, जो अपनी गलतियों को समझकर स्वीकार करे। न कि गलतियों पर गलतियां दोहराकर, ईर्ष्या और द्वेष को पालकर मन पर बोझ डालता जाए। ऐसा करते रहने पर मन का यही बोझ बीमारियों का रूप ले लेता है। जैसे आग ईंधन को जलाकर स्वयं शांत हो जाती है। वैसे ही ईष्या और द्वेष हम पर अपना प्रभाव दिखाते है। 

होली का एकमात्र उद्देश्य देशवासियों में, आजीवन सद्भाव पूर्वक संवाद को बनाये रखना है। यदि किसी कारण थोड़ी बहुत ऊंच – नीच हो भी गई तो गलतियों को स्वीकार कर। उन्हें तुरंत सुधार लेना। जिसका सुमधुर अवसर देती है होली का पर्व। क्योकि यह समय सभी दृष्टियों से उत्सव का समय तो होता ही है, बल्कि हम परिवार और गाँव आदि के सहित इकठ्ठे भी होते है। इसलिए चेहरों के साथ दिलों को रंगने का त्यौहार है होली।

उपसंहार :

होली सनातन धर्म के अनोखे पर्व – त्योहारों में से एक है। जो प्रकृति और रंगो का ही उत्सव नहीं, बल्कि काम महोत्सव भी है। जिसका आनंद केवल हम मनुष्य के साथ, देवता और पितर आदि भी लेने के लिए लालायित रहते है। यह एक ऐसा अनूठा पर्व है। जहाँ समूचा परिवार और गांव आदि एक साथ होता है। इसलिए यह होली की शुभकामना और मौज मस्ती तक ही नहीं, बल्कि गिले और सिकवे को भी सुधारने का अच्छा अवसर है। जिससे चेहरों के साथ दिलों को रंगने का त्यौहार है होली। 

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