बवासीर ( bawasir ) / अर्श : hemorrhoids in hindi

आज आधुनिकी अव्यवस्थाओ का दुष्प्रभाव मानव ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण जीव जगत पर समान रूप से है। जिसके चलते हम मनुष्यो के जीवन में, न चाहते हुए भी अनेक बदलाव आने लगते है। जैसे – मलत्याग करते समय गुदा में तीव्र दर्द होना, गुदमार्ग में जलन होना, गुदामार्ग में खुजली और मवाज आना आदि। जिनको पेट साफ न होने के लक्षण कहा जाता है। परन्तु यह सब बवासीर के लक्षण भी हो सकते है। जिसके लिए बवासीर का इलाज करना आवश्यक है। जिसमे बवासीर की दवा के रूप में, बवासीर की टेबलेट  आदि का प्रयोग होता है।

बवासीर के लक्षण, कारण एवं इलाज

बवासीर को आयुर्वेदज्ञ आचार्यो ने अर्श की संज्ञा दी है। बवासिर ( हेमोर्रोइड्स / hemorrhoid ) ठोस मलापनोदन में, प्रयुक्त अंग ( गुदा ) की बीमारी है। जोकि जन्मकालिक और अजन्मकालिक दोनों रूपों में पायी जाती है। यह बहुत ही तकलीफ देने वाली बीमारी है। जिसमें गुदा (anus), मलाशय ( rectum) और मलद्वार (anal canaal) तीनो प्रभावित होते है। जिसके कारण हमे ना ना प्रकार की समस्याओ का सामना करना पड़ता है। जैसे – गुदा में रूखापन, दर्द और खुजली आदि होना। जिसमे खुलकर पेट साफ नहीं होता तब पेट साफ कैसे करे की बात आती है। 

इसमें हमारे गुदा के दोनों हिस्सों ( अंदर और बाहर ), तथा मलाशय में सूजन एवं लालिमा आ जाती है। जिससे हमारे गुदस्थ स्थान में दर्द, खुजली, चुभन और जलन आदि होता है। समस्या के अधिक गंभीर होने पर, गुदा के अंदर या बाहर मस्से बनने लगते है। यह कभी अंदर रहते है, तो कभी बाहर निकल आते है। कभी इन मस्सो से मवाज तो कभी खून निकलना भी देखा जाता है। जिसके कारण मल त्यागना तो दूर की बात, मल का वेग आते ही हमारी रूह कापने लगती है। 

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बवासीर क्या होता है ( bawasir kya hota hai )

माधवकारानुसार – जो मांसकील ( मस्से ) गुदमार्ग में रुकावट पैदा करके, मनुष्यो को शत्रु की भाँती पीड़ा पहुंचाकर मृत्यु समान कष्ट देते है। उन्हें अर्श अथवा बवासीर कहते है।

बवासीर फोटो

जबकि आधुनिक चिकित्सा विशेषज्ञ गुदस्थ शिराओ में, खून जमने से गुदा की नलिकीय शिरा फूलकर लटकने लगती है। जिसको आयुर्वेद ग्रन्थ अधिमांस कहते है। जिसको बवासीर के मस्से भी कहा जाता है। 

यह मस्से गुदा द्वार के आस – पास एकल, द्विकल या बहुकल रूपों में आच्छादित रहते है। जिनको बवासीर के मस्सो का गुच्छा भी कहते है। जो मल त्याग के समय मल निष्कासन समस्या खड़ी करते है। जिसके कारण मल त्याग के समय दाब लगाना पड़ता है। जिससे गुदा के अंदर या गुदा के मुँह आदि पर दरार बन जाती है। जिससे कभी – कभी खून भी निकलता है। 

जब यह प्रक्रिया बार – बार दोहराई जाती है, तब गुदा पर घाव बनने की संभावना प्रबल हो जाती है। जिसमे अनेको प्रकृति के दर्द हो सकते है। जैसे – जलन, चुभन, मरोड़, सिलन, टपकन आदि। जिनको चिकित्सीय विधा में घाव का स्वाभाविक गुण माना गया है।

आज के समय में बावसिर लगभग 60% लोगो में देखा जाता है। जिनमे से अधिकांश जन्म जात नहीं होते। आज के महायान्त्रिक युग में बवासीर विकराल समस्या बन चुकी है। जिसका सबसे बड़ा कारण मानव को महामानव के रूप में देखा जाना है। अर्थात यन्त्र ( मशीन ) के सदृश व्यवहार की कल्पना होती है।

जिससे आहार – व्यवहार आदि में अनायाश विसंगति का आना तय है। जो आगे चलकर कब्ज, मोटापा आदि रोग का कारण बनता है। 

बवासीर कितने प्रकार की होती है ( bawaseer kitne prakar ki hoti hai )

आयुर्वेदादी शास्त्रों ने बवासीर के दो भेद माने है – 

  1. सहज ( जन्मजात ) 
  2. जन्मोत्तरकालज / उत्तरकालज ( दोषज )

जबकि आधुनिक चिकित्सीय विज्ञान ने, अलग – अलग ढंग से बवासीर के प्रकार बतलाये है – 

  1. अभ्यन्तर अर्श ( internal hemorrhoids ) : आंतरिक गुदबलियो में उत्पन्न होने वाले अर्श। जिन्हे  चिकित्सीय दृष्टि से कष्टकारक माना गया है। जिनकी चिकित्सा अनेक कठिनाइयों से भरी है। 
  2. बाह्यार्श ( extarnal hemorrhoids ) : बाहरी गुदबलियो में पैदा होने वाले अर्श। इनकी चिकित्सा सरलता से हो जाती है। जिससे इन्हे शास्त्रों ने सुखसाध्य कहा है। 

बवासीर कैसे होता है ( bawasir kaise hota hai )

bawasir kaise hota hai

चरक आदि महर्षियो के अनुसार दोनों प्रकार के, अर्श ( bavasir ) के अलग – अलग कारण माने गए है –

सहज अर्श के कारण 

इन अर्शो के दो कारण माने गए है – 

  1. मातृ – पित्रगत आनुवांशिक दोष। जिसे शास्त्रों में शुक्र शोणित ( माता – पिता का अपचार ) कहा गया है। 
  2. पूर्व जन्म में किये गए दुष्कर्म 

उपरोक्त अपचार का तात्पर्य शिशु के गर्भस्थ काल में, आहार – विहार का अनुचित प्रयोग है।

जबकि पूर्व जन्मगत दुष्कर्म, सभी सहज रोगो में उभयनिष्ठ है। जो प्रत्येक जीव को जन्म प्राप्त होने वाली व्याधि है। ऐसा सनातन शास्त्रों का मत है। जिसका अनुगमन सभी आयुर्वेदज्ञ आचार्यो ने किया है। 

कालज अर्श के कारण 

यह जन्म के बाद होने वाली बवासीर है। जिनके कारणों को दो समूहों में बांटा जा सकता है। 

आहार विसंगति

ठोस आहार विसंगति 

मीठा, ठंडा, पचने में भारी, कफ को बढ़ाने वाले ( अभिष्यंदी ), जलन पैदा करने वाले ( विदाही ), निरुद्ध विरुद्ध आहार, अजीर्ण कारक पदार्थ, नपा तुला निर्धारित भोजन ( प्रतिमाशन ), विपरीत देहगत स्वभाव ( असात्म्य ) पदार्थो का भोजन में सेवन करने से,

जलीय जन्तुओ जैसे मछली, सूअर आदि। निर्जलीय जंतु जैसे – भैंसा, बकरा, भेड़ा आदि के मांस को खाने से, दुर्बल अथवा कमजोर प्राणियों के मांस, सूखा मांस, बद्बूदार ( पूति  ) मांस को खाने से, पैष्टिक ( चावल के आटे की पीठी से बने ), परमान्न ( खीर ), दूध ( गोक्षीर ), दही का पानी, तिल या गुड़ से बने हुए पदार्थो का सेवन करने से,

माष अथवा उड़द की दाल, तिल की खली या पिण्याक, पिंडालु शाक ( अरुई, घुइयाँ, बंडा, पिनालू, गडेरी ), धुप में सुखाये हुए ( मूली, आलू, गोभी, अरुई, भिन्डी आदि ) शाकों, लशुन या लहसुन ), छेना,  बिस ( भसीड़ा, कमलनाल ), मृणाल, शालूक ( कमलकन्द ), क्रौञ्चादन ( छोटा कसेरू), कसेरू, सिंघाड़ा, तरुट ( कुमुदकंद ), विरुद्धधान्य ( अंकुरित मूंग, चना आदि ), नवशूक, शमीधान्य, कच्चीमूली आदि 

इन पदार्थो का उपयोग करने से, देर में पचने वाले फल, शाक, रायता, अचार आदि, हरितक ( हरा धनिया, अदरक आदि ), मर्दक ( कासमर्द ), वसा ( चर्बी ), शिरस्पद ( बकरे के सिर और अस्थि के अंदर की मज्जा ), पयुरषित (  बासी भोज्यपदार्थ ), दुर्गन्धयुक्त पदार्थ, शीतल द्रव्य, संकीर्ण ( अनेक प्रकार के परस्पर मिले ) भोज्य पदार्थो का सेवन करने से,

द्रव आहार विसंगति 

तक्रपिंड ( मठ्ठा को कपडे में बांधकर कुछ देर तक लटका देने से बनने वाला पदार्थ ), मन्दक ( बिना जमा और अधजमा दही ) को खाने से, गन्ने का रस पीने से, अतिक्रांत मद्य ( सड़ जाने से जिस मदिरा के गुण धर्म नष्ट हो गए हो ) को पीने से, विकारयुक्त गुरु जल को पीने से, अधिक स्नेह – पान ( घी, तेल आदि ) करने से, 

विहार ( दिनचर्या ) विसंगति 

उत्कटासन ( बैठकर मलत्याग किया जाने वाला आसन ), ऊंचा – नीचा या विषम आसन, कठोर आसन ( लकड़ी, पत्थर आदि पर बैठना ) के सेवन से, उद्भ्रांत यान ( मतवाले घोड़े, बेतुकी चाल वाली मोटर गाड़ी आदि ) तथा ऊंट की सवारी से, अधिक सम्भोग करने से, वास्तिनेत्र ( यन्त्र ) का ठीक प्रकार प्रयोग न करने से, 

उचित समय पर संशोधन ( जैसे – वमन – विरेचनादि ) न करने से, वस्तिकर्म का विधिवत प्रयोग न करने से, शारीरिक परिश्रम ( व्यायाम ) न करने से, मैथुन न करने से, दिन में सोने से, सुखद शयन ( पलंग ) तथा आसन का निरंतर सेवन करने से जिसकी पाचकाग्नि मंद पड़ जाती है। जिससे उनके उदर प्रदेश में अधिक मात्रा में मल का संग्रह हो जाता है। 

गुद में घाव होने से, बार – बार गुद में शीतल जल के स्पर्श होने से, वस्त्र, मिट्टी का ढेला, तृण आदि की रगड़ लगने से, निरंतर अत्यंत काखने से, वात, मूत्र, पुरीष के वेग को बलपूर्वक उभाड़ने से, उभड़े हुए इनके वेगो को रोकने से, स्त्रियों में आमगर्भ के गिरने से, गर्भ का दबाव पड़ने से, विषम प्रसृतियो ( प्रसवजनित विकृतियों ) से प्रकुपित हुआ अपानवायु अधोगत संचित मल के पास पहुंचकर उस मल के भार को लाकर गुदवलियों में रख देता है। जिसके परिणाम स्वरूप उनमें अर्शो की उत्पत्ति हो जाती है।             

बवासीर के लक्षण ( bawasir ke lakshan )

आयुर्वेदादी शास्त्रों में सहज और कालज अर्श के, अलग – अलग लक्षण बताये गए है। जिससे इनमे विभेद स्थापित होता है। जो चिकित्सा कर्म में सहायक है। परन्तु व्यवहारिक धरातल पर बवासीर के लक्षण हिंदी में लोग पूछते है।

bawasir photo

सहज अर्श के लक्षण

विभिन्न आकृति वाले जन्मजात बवासीर के मस्सो से पीड़ित रोगी जन्म से ही अत्यंत दुबला पतला, फीका चेहरा वाला, कमजोर तथा दीन – हीन होता है। वह विशेष रूप से कब्ज से पीड़ित रहता है, और उसका अपानवायु, मल ( पुरीष ), मूत्र रुक – रुक होता है। उसके मूत्र में बालू ( शर्करा ) जैसा पदार्थ निकलता है। उसे पथरी रोग होता है। उसे अनिश्चित रूप से कब्जियत रहता है। जब कब्जियत खुल जाती है तो कभी पका हुआ मल निकलता है, कभी कच्चा या अधपका , कभी सूखा, कभी अतिसार होने लगता है। 

यह व्यक्ति बीच – बीच में सफ़ेद, पाण्डु ( पीत – धवल ), हरा , पीला , लाल, अरुण ( ईट के रंग का ), पतला, गाढ़ा, चिपचिपा, मुर्दे की  – सी गंधवाला, तथा आम पुरीष का त्याग करता है। नाभि, वस्ति और वक्षण में उसे पर्याप्त मात्रा में कैंची से काटने के समान पेट दर्द (colic pain) होता है।

उस रोगी के गुद में दर्द, प्रवाहिका (dysentery), रोमांच, प्रमेह, कब्जियत निरंतर बने रहना, आंत्रकूजन ( वायु के कारण आंतो में गुड़गुड़ाहट होना ), उदावर्त, ह्रदय तथा इन्द्रियों पर कफ आदि का लेप कर दिया गया हो ऐसा अनुभव होनाअधिक मात्रा में रुके हुए तिक्त अथवा खट्टी डकारों का आना, रोगी का शरीर अत्यंत दुर्बल हो जाना, उसकी पाचकाग्नि का दुर्बल हो जाना, शरीर में वीर्य की कमी हो जाना, स्वभाव का क्रोधयुक्त हो जाना।

उसके चिड़चिड़े स्वभाव के कारण चिकित्सा न हो पाना, अथवा दुखी पुरुषो के जैसे स्वभाव का हो जाना, खांसी, श्वास, तमकश्वास, बार – बार प्यास का लगना, जी मिचलाना, उल्टी, अरोचक, अनपच, पीनस, छींक इन रोगो से हमेशा घिरा रहता है।

कुछ अतिरिक्त लक्षण 

बवासीर में सिर दर्द  

तिमिर रोग तथा सिर दर्द से पीड़ित रहता है। उस रोगी के मुँह से धीरे, फूटी हुई कांसे की थाली को बजाने जैसी आवाज आती है, सन्न ( अत्यंत मंद ), सख्त ( रुक – रुक कर ), जर्जर ( फ़टे हुए बांस को पीटने से निकलने वाली आवाज जैसे ) स्वर वाला हो जाता है। 

उसके कान में पीड़ा होती है। हाथ, पैर, चेहरा, आँखों के चारो ओर सूजन हो जाती है, बुखार, शरीर के अवयवों में मसल देने के समान दर्द ) और सभी हड्डी के जोड़ों में दर्द बीच – बीच में , पसलियों, कुक्षि, वस्ति, ह्रदय, पीठ, त्रिकास्थि में वात दोष के कारण जकड़ जाने के समान वेदना से पीड़ित होना। हर समय वह चिंचित और बहुत आलसी होता है।  

पैदायसी सहज अर्श रोगी के बवासीर के मस्सो द्वारा, गुदमार्ग चारो ओर से घिर जाती है। जिसके कारण अपान वायु ऊपर की ओर चढ़ती है। जिससे समान, व्यान, प्राण और उदान वायुओ के साथ पित्त एवं कफ दोषो को कुपित करता है। इस प्रकार शरीर में पाए जाने वाले पांचो वायु एवं पित्त – कफ प्रकुपित होकर, बवासीर रोगी को आक्रांत करके ऊपर लिखे विकारो को पैदा करते है।  

कालज अर्श के लक्षण

आयुर्वेदीय चिकित्साकारो ने बवासीर के 6 भेद बताये है। जिनके आधार पर कालज अर्श में, अनेक प्रकार के लक्षण पाए जाते है। जिससे दोषगत रुग्णता की पहचान होती है। जिसको बवासीर की पहचान (bawasir ki pahchan) भी कहते है। जैसे –  

  • शरीर में कमजोरी आती जाना 
  • शरीर में मसलने की तरह पीड़ा होना
  • मल त्याग के समय मल कम निकलना
  • मल का अत्यंत सूखा, गीला, सख्त होना 
  • पेट में गैस बनना 
  • अधिक डकार आना 
  • कुक्षि प्रदेश में पेट गुड़गुड़ाना
  • भोजन के प्रति अरुचि होना
  • पेट में जलन और दर्द होना 
  • अपानवायु, मल, मूत्र का रुक – रुक कर होना 
  • मुँह का फीका पड़ जाना 
  • मूर्च्छा होना 
  • सूजन होना
  • गुदा के अंदर या बाहर मस्से होना। जिसमे चुभन, जलन, खिचाव, टपकन आदि होना।
  • मस्से का कठोर, नरम अथवा कड़ा होना
  • मस्सो का गीला अथवा अत्यंत सूखा होना 
  • मस्सों से मवाज, रक्त आदि का स्राव होना
  • मस्से से दुर्गन्ध आना और खुजली होना आदि। 

बवासीर / अर्श का क्षेत्र

जिस स्थान पर पर बवासीर पैदा होती है। उसे ही बवासीर का क्षेत्र कहते है। यह गुदा – प्रदेश के साढ़े चार अंगुल अंदर से लेकर गुदाद्वार तक है। जोकि तीन भागो में विभाजित तीन गुदबालियों वाला स्थान है। जिनके नाम प्रवाहणी, संवरणी तथा विसर्जनी है। जो एक – एक अंगुल पर एक दुसरे के ऊपर स्थित है। 

बवासीर का आकार ( bavasir ka aakaar )

चरक आदि आचार्यो ने द्विभेदक अर्श की दृष्टि से होने के भिन्न आकार बताये है –

सहज अर्शाकार ( जन्मजात बवासीर का आकार )

गुद स्थान में पैदा होने वाले अर्श के अनेक आकार है। कुछ सूक्ष्म तो कुछ बड़े आकार के होते है। कुछ लम्बे तो कुछ छोटे आकार के होते है। कुछ आकार में गोल होते है। कुछ विषम ढंग से फैले रहते है, कुछ भीतर की ओर मुड़े रहते है। कुछ बाहर की ओर निकलकर मुड़ जाते है, कुछ आपस में ही उलझे जैसे रहते है। कुछ अर्श बाहर की गुदबलियो में उत्पन्न होकर भी अंदर की ओर मुँह वाले होते है। जिनका रंग उनके अपने दोषो के अनुसार होते है। जैसे – कफज अर्श का श्वेत, पित्तज अर्श का पीला, हरा अथवा काला आदि।  

कालज अर्शाकार ( जन्म के बाद पैदा होने वाली बवासीर का आकार )

 

सहज अर्श की तरह कालज अर्श भी अनेक आकार के पाए जाते है। जैसे – सरसों, जौ, मूंग, मसूर, उड़द, मोथ, मटर, पिंड, क़रीर फल, तेन्दु फल, जंगली बेर या करबेर, घुंघुची, कुंदरू, कलमी बेर, बांस का अंकुर, जामुन, खजूर, गूलर, गाय के स्तन, अंगूठा, कसेरू, सिंघाड़ा, काकड़ासिंगी, मुर्गा, मोर, तोता के चोंच या उनकी जीभ की आकृति के, पद्यमुकुल, पद्यकर्णिका के जैसा और सदृश आकार वाले वात, पित्त, कफादि की प्रधानता के कारण उपरोक्त प्रकार के बवासीर के मस्से होते है। 

बवासीर का इलाज ( bavasir ka ilaaj )

bawasir ka ilaj

आयुर्वेदादी शास्त्रों में वर्णित रोगोपचार पद्धति में, रोगी के विषम दोष की पहचान की जाती है। तदन्तर उसके अपनोदन के उपायों पर विचार किया जाता है। जिसमे औषधि, विशेषज्ञ, परिचारक और रोगी चारो की आवश्यकता होती है। जिसका मूल कारण ये चारो आपस में एक दुसरे के पूरक है। इनके उपलब्धोपरांत धैर्य पूर्वक चिकित्सा, चिकित्सीय विधानों का अनुपालन कर्त हुए करना होता है। जिसमे आहार की गुणवत्ता, मात्रा, अनुपान और काल ( समय ) आदि की बात बतलाई गई है।

जबकि आधुनिक चिकित्सीय विधियों में भोजन आदि पर, विशेष ध्यान न देकर दवा आदि पर बल दिया जाता है। जैसे – होम्योपैथी आदि में। जिसमे रोगी से प्राप्त बवासीर के लक्षण आदि को संकलित कर, ध्यान पूर्वक औषधि के लक्षणों से मिलान किया जाता है। जिससे रोग की प्रवृत्ति सामान लक्षण और तीव्रता को पाकर, निवृत्ति के मार्ग को अपनाते हुए रोगी को स्वास्थ्यता प्रदान करती है। परन्तु चिकित्सोपरांत दिनचर्या, आहार आदि का ध्यान न रखने पर, रोग की पुनरावृत्ति होने की संभावना बनी रहती है। 

सर्वाधिक प्रचलित दवोपचार प्रणाली का अपना सिद्धांत है। जिसमे उपचार हेतु शरीर के अंदर अतिरिक्त कृत्रिम रसायनो का निक्षेपण, विविध उपायों का आलंबन लेकर किया जाता है। जिसमे भोजन आदि के रूप में पश्चात देशो के प्रचलन में उपयोगित भोज्य पदार्थो का उपयोग है। जो उनके अपने सिद्धान्तानुसार उपयुक्त है। देश काल और परिस्थिति के अनुसार सभी की अपनी उपयोगिता है। इन सबके बावजूद बवासीर की गारंटी की दवाई सभी तरह के बवासीर में कारगार मानी गयी है।  

बवासीर का इलाज घरेलू ( hemorrhoids home remedy in hindi )

लोक व्यवहार में प्रचलित उपाय आयुर्वेद सम्मत ही है। यदि कोई उपाय आयुर्वेद में वर्णित नहीं है, तो उसे आवांतर उपाय ही कहा जा सकता है। जो रोग से राहत तो दिला सकता है, परन्तु उपचार नहीं कर सकता। ऐसा इसलिए भी कहा गया है कि उचित देश में, उचित काल तक, उचित चिकित्सा विधा को अपनाने पर ही रोग से छुटकारा मिल सकता है। फिर भी कुछ ऐसे बवासीर के घरेलू नुस्खे है, जिनसे बवासीर में आराम मिल सकता है। ठीक उसी तरह जैसे पेट दर्द का घरेलू उपचार आदि। पेट में होने वाले दर्द से छुटकारा दिलाते है।  

  • सूखे बवासीर के मस्से इतने अधिक सूख जाते है कि उनमे चुभन होने लगती है। जिसमे कडा और रूखा पन आने लगता है। इस प्रकार की समस्या होने पर, जात्यादि तेल बवासीर के लिए उपयोगी है। इसको लगाने से बवासीर के मस्से, नरम और मुलायम हो जाते है।
  • शुष्क बवासीर को का नाश करने से मठ्ठा से बढ़कर और कोई द्रव्य नहीं है। यदि रोगी के देहगत दोष के अनुसार लिया जाय तो। ऐसा आयुर्वेदज्ञों का मत है। 
  • हरीतकी और गुड़ अग्निवर्धक द्रव्यों में सम्मानित है। जिसके प्रयोग से बवासीर आदि के कारण मंद अग्नि पुनः प्रबल हो जाती है।  

बवासीर के मस्से का होम्योपैथिक इलाज ( bawaseer ka ilaj homeopathic in hindi )

बवासीर के मस्से का होम्योपैथिक इलाज

होम्योपैथी में बवासीर के लक्षणों को ध्यान में रखकर, औषधि का चयन किया जाता है। जिसमे हर व्यक्ति की अपनी अलग दवा होती है, क्योकि सभी रोगियों के लक्षण में विविधिता पायी जाती है। जिसमे सामान्यतः निम्न दवाइया प्रयोग की जाती है –

नक्स वोमिका : इसमें मल त्याग की इच्छा और वेग होने पर भी, खुलकर पेट साफ़ नहीं होता। इसके साथ मलद्वार से खून निकलता है और कुटकुटी एवं खुजली होती है।

एलो : इसमें मल वायु निकलने के साथ ही या मूत्र के वेग से अनजान में ही निकल जाता है। पेट में वायु होती है। साथ ही इसके बवासीर में ठन्डे पानी का प्रयोग करने पर तकलीफ घटती है। 

इग्नेशिया : इसमें पाखाना न होकर रेक्टम प्रोलैप्स हो जाता है। जिसे कांच निकलना कहते है। यह इग्नेशिया का लक्षण है। साथ ही पाखाना हो जाने के बाद बहुत समय तक मलद्वार में दर्द, तनाव, फूटन का दर्द और मलद्वार के संकोचन का भाव विशेष रूप से रहता है। आदि।    

बवासीर की टेबलेट ( bawaseer ki tablet )

आज बवासीर का उपचार करने के आधुनिक उपाय भी है। जिसमे घरेलू उपाय आदि की तरह दवा का इस्तेमाल होता है। जिसे बवासीर की टेबलेट कहते है। जिसमें कुछ पेन किलर टेबलेट भी है। जिन्हे पेन किलर मेडिसिन भी कहा जाता है। बवासीर में जब भयंकर दर्द होता है, तब पेन किलर खाने के फायदे है। जिससे थोड़े ही समय में दर्द कम हो जाता है। जिसके लिए लोग बवासीर के लिए टेबलेट बताइये पूछते है। 

जबकि लम्बी अवधि में पेन किलर खाने के नुकसान है। जो गुर्दे आदि में गड़बड़ी पैदा करते है। इसलिए बवासीर का अंग्रेजी दवा ( bawaseer ki dawa tablet ) का प्रयोग बहुत सम्हल कर करना चाहिए। जब बवासीर की अंग्रेजी दवा का नाम बताइए पूछते है। तब इनके लाभ – हानि का विचार भी करना अनिवार्य है। जिसमे निम्न दवाइयों का उपयोग किया जाता है –

  • Fubac 
  • Alocaine
  • Mahacal
  • Xylox आदि। 

जब आयुर्वेदिक बवासीर के लिए टेबलेट बताइए की बात होती है। तब हिमालय पिलेक्स ( himaalaya pilex ) बवासीर का टेबलेट ( bawaseer ka tablet ) है। जिसको आयुर्वेदिक हिमालय बवासीर टेबलेट ( himalaya bawasir tablet ) कहा जाता है। जबकि बवासीर के मस्से को जड़ से खत्म करने का उपाय स्थायी रूप से इसका उपचार करते है। 

बवासीर से बचने के उपाय ( bawasir se bachne ke upay )

पैदायसी बवासीर का से बचना क्या ? जब वह जन्म से ही प्राप्त है। बचने का विधान केवल उन रोगो में चरितार्थ है। जो जन्म के बाद उत्पन्न होती है। जिसमे अनेक निरुद्धाचरण अपनाने की बात आयुर्वेदादी शास्त्रों में वर्णित है। जिनका हमें ज्ञान न होने से हम उन क्रिया कलापो को अपना लेते है। जिन्हे हमें नहीं अपनाना चाहिए। इसलिए हमे उन सभी उपायों का अभ्यास करना चाहिए। जिनसे हमे सुखद स्वास्थ की प्राप्ति होती है। जैसे – 

  • दिवा शयन न करे।
  • रात्रि में अधिक समय तक न जगे और सुबह में जल्दी उठे। 
  • भोजन की मर्यादा गुणवत्ता आदि का विशेष ध्यान रखे। जइसे – मांस, मदिरा, धूम्रपान आदि से दूर रहे।
  • गेहू और चावल के स्थान पर मिलेट का प्रयोग करे।
  • आयोडीन युक्त नमक के स्थान पर प्राकृतिक नमक का प्रयोग करे। जैसे – सेंधा, समुद्री, साम्भर आदि।
  • खाना बनाने में कम ताप पर दाब डालकर निकाले गए तेल का ही प्रयोग करे।
  • दूध को पकाकर अमलांश डालकर जमाये गए, दही को मथकर निकाले गए मक्खन को तपाकर निकले घी का ही प्रयोग करे।
  • मर्यादित दिनचर्या का पालन करे।
  • नियमित कम से कम सवा घंटे परिश्रम, भजन अथवा ध्यान जरूर करे।
  • सुबह और शाम को मिलाकर सवा घंटे भोजन करने में अवश्य लगाए। जिससे भोजन को पिया और पानी को खाया जा सके।
  • भोजन के तुरंत बाद पानी न पिए। 
  • शांत और स्वच्छ स्थान पर निवास करे।
  • नव वेगो को रोकने का प्रयास न करे। जैसे – मल, मूत्रादि।
  • हर बार मल उत्सर्जन के उपरान्त मल उत्सर्जित अंगो को धोना न भूले। 

उपसंहार / निष्कर्ष :

बवासीर के लक्षण को जान समझकर, बवासीर से निपटने की शीघ्रतिशीघ तैयारी करनी चाहिए। यदि समय पर ऐसा नहीं किया गया तो बवासीर गुद को बाँध लेती है। जिसके अनन्तर मल वही स्रोतों को रोककर, बध्दगुदोदर रोग का जनन कर देती है। जो आगे चलकर अधिक तकलीफ़देह होता है।

जन्म के बाद हुई बवासीर का इलाज दवा आदि से तो होता ही है। परन्तु भोजन की विसंगति पर विशेष ध्यान रखना चाहिए। यदि दिनचर्या आदि का ध्यान रखा जाय तो शीघ्र इनमे लाभ होता है। इनको निरंतर बनाये रखने पर बवासीर होने की संभावना कम ही रहती है। 

ध्यान रखे : किसी भी औषधि के सेवन से पूर्व विशेषज्ञ की सलाह अवश्य ले। जिससे इनके द्वारा होने वाली हानियों से बच सके। 

रिफ्रेंस : 

चरक शरीर अध्याय 3.6,7

चरक शरीर अध्याय 4.30

चरक चिकित्सा अध्याय 14

योगरत्नाकर अर्शरोगनिदान पृष्ठ 294

कम्पैरेटिव मैटेरिया मेडिका द्वारा डा नारायणचन्द्र घोस, केंट आदि। 

FAQ

बवासीर भगंदर क्या होता है?

बवासीर और भगन्दर मलाशय के अधोभाग में होने वाला रोग है। जिसमे मांस की वृद्धि के कारण गुदा में दर्द होना, पाखाना न होना इत्यादि लक्षण पाए जाते है। 

बवासीर में कौन सा तेल लगाना चाहिए?

बवासीर में जात्यादि तेल बहुत असरकारी होता है। जिसके नियमित प्रयोग से बवासीर के मस्से सूखने लगते है।  

बवासीर में कौन सा आसन नहीं करना चाहिए?

उत्कटासन अथवा मुकुरु बैठना।  

बवासीर को इंग्लिश में क्या कहते हैं?

पाइल्स। 

किस ग्रह के कारण बवासीर होता है?

शनि और मंगल के प्रभाव से बवासीर आदि होती देखी जाती है। 

44 thoughts on “बवासीर ( bawasir ) / अर्श : hemorrhoids in hindi”

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